Rahim Das Ka Jivan Parichay
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Rahim Das Ka Jivan Parichay – खानजादा मिर्जा खान अब्दुल रहीम, जिन्हें केवल रहीम के नाम से जाना जाता है, की उपाधि खान-ए-खानन है। रहीम मुगल सम्राट अकबर के शासन के दौरान उनके दरबारी कवि थे। अकबर रहीम के गुरु भी थे। रहीम अकबर के दरबार में नौ महत्वपूर्ण मंत्रियों (दीवान) में से एक थे, जिन्हें नवरत्नों के नाम से भी जाना जाता है।
रहीम को उनके हिंदी दोहे और ज्योतिष पर उनकी पुस्तकों के लिए जाना जाता है। भारत के पंजाब राज्य के नवांशहर जिले में स्थित खान खाना नाम का गाँव उन्हीं के नाम पर रखा गया है। रहीम दास बायोग्राफी हिंदी में ( Rahim Das Ka Jivan Parichay ) :-
रहीम का जीवन परिचय
जन्म एवं माता-पिता
रहीम तैमुर के वंशज थे। रहीम का जन्म 17 दिसंबर 1556 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता का नाम बैरम खां था। बैरम खां ही वह ब्यक्ति थे जिनके कारण हुमायूँ और हुमायूँ के बाद अकबर भारत में अपनी सत्ता स्थापित कर सके। रहीम की माँ, सुल्ताना बेगम मेवात के खानजादा ज़माल खान की पुत्री थीं।
कुछ लोग बैरम खां से ईर्ष्या करते थे। वो लोग अक्सर बैरम खां के विरुद्ध अकबर के कान भरते रहते थे। इसी के चलते अकबर ने बैरम खां को परिवार सहित हज पर जाने का आदेश दिया। हज पर जाते समय गुजरात में उन पर अफगानों ने आक्रमण कर दिया और उनकी हत्या कर दी।
उस समय रहीम की उम्र मात्र 4 साल थी। रहीम और बैरम खां की पत्नियों को उनके वफादार सही सलामत दिल्ली ले आये। उसके बाद रहीम की देख-रेख अकबर के सामने ही हुयी।
पालन-पोषण
रहीम और उनकी माँ के दरबार में लाये जाने के बाद अकबर ने उनकी माँ से विवाह कर लिया और इस तरह वह उनके सौतेले पिता भी बन गए। अकबर ने रहीम को उस समय की सर्वोच्च उपाधि ‘मीरअर्ज’ या ‘ मिर्ज़ा खां ’ दी थी।
अकबर ने उनकी शिक्षा का ऐसा बढ़िया प्रबंध किया था कि वे अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिंदी में दक्षता प्राप्त कर ली। इतना ही नहीं बिना किसी सहायता के वे 11 वर्ष की आयु में काव्य रचना भी करने लगे थे। जिसे देख अकबर बहुत अचंभित हुए।
इतिहास बताता है की जब अकबर के पुत्र सलीम को शेर अहमद, मीर कलाँ और दरबारी विद्वान अबुलफजल आदि शिक्षा देने में असफल रहे तब अकबर ने यह जिम्मेदारी रहीम को सौंपी। रहीम ने यह कार्य भी सफलतापूर्वक किया।
विवाह एवं युवावस्था
शिक्षा समाप्त होने के बाद अकबर ने रहीम का विवाह एक उच्च पदाधिकारी खानेआज़म की बहन और उनकी धाय माहम अनगा की पुत्री माहबानो बेग़म के साथ करवा दिया। जिनकी बैरम खां से बहुत पुरानी शत्रुता थी। इसी शत्रुता को समाप्त करने के लिए उन्होंने यह विवाह करवाया था।
16 वर्ष की आयु में इन्होने अपना पहला युद्ध लड़ा और बहुत ही कम सेना के साथ शत्रु की बड़ी सेना को अपनी बुद्धिमानी और वीरता से हरा दिया। यह युद्ध उसी भूमि के लिए हुआ था जिस भूमि पर उनके पिता के प्राण गए थे और उनके जीवन पर भी खतरा मंडरा रहा था। उसी भूमि को उन्होंने अपने बाहुबल से अपने आधीन कर लिया।
इसके बाद भी इन्होने कई युद्ध लड़े और विजय भी प्राप्त की जिसके फलस्वरूप इन्हें कई उपाधियों से नवाज़ा गया। साहित्य के क्षेत्र में उन्हें प्रसिद्धि तब मिली जब उन्होंने ‘तुजुक-ए-बाबरी’ का फारसी में अनुवाद किया।
जीवन
इसके बाद समय बढ़ता रहा और इनकी पत्नी, बेटे और दामाद कि अलग-अलग कारणों से मृत्यु हो गयी। अकबर का एक लडका दानियाल रहीम का दामाद था। दूसरे लड़के स्वभावतः जलते थे। रहीम का दामाद खड़ी जवानी मे अति मद्यपान के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ।
अकबर की मृत्यु के बाद जब सलीम ने जहाँगीर के नाम से गद्दी संभाली तब रहीम 41 वर्ष के थे। पहले जहाँगीर ने उन्हें बड़ा आदर दिया पर फिर जहांगीर के लड़के परवेज और मुराद रहीम ईर्ष्या करने लगे। रहीम को अकसर अलग-अलग स्थानों पर विद्रोह शांत करने के लिए भेजा जाता, कभी बुला लिया जाता।
इनकी एक पौत्री का विवाह शाहजहाँ के साथ भी हुआ था। जहाँगीर के बाद जब रहीम अगले मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ मिले तो नूरजहाँ उनसे नाराज हुई, क्योकि यह अपने दामाद शहरयार को गद्दी देना चाहती थी। और तभी से रहीम के बुरे दिन शुरू हुए। पत्नी और दामाद तो पहले ही जा चुके थे, दो-दो लड़के सामने गए, बाप-बेटे की लड़ाई में खानखाना ऐसे फंसे कि पुत्र-पौत्र मरवा डाले गये, खुद कैद में डाल दिये गये ।
अन्त मे मरने के एक साल पहले जहाँगीर ने इन्हें कैद से छुटकारा दिया और फिर से सम्मान दिया। यही नहीं उन्हें उस महावत खां के विद्रोह को शान्त करने के लिए आदेश दिया जिसने जहांगीर के आदेश से खानखाना को कैद किया था। महावत खां को परास्त करके जब वे दिल्ली आये तो शरीर और मन मे काफी जर्जर हो चुके थे ।
बहत्तर वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हुई रहीम को रणथम्भौर, जौनपुर और कालपी मे जागीरें मिली थीं। इससे वे अवधी भाषा के सम्पर्क मे आये, और आगरे में तो राजधानी थी ही, वे व्रज के रंग मे रंगे, पर उनके ऊपर तुलसी का रंग गहरा है वैसे उन्होंने तीनो रंग की कविताएं लिखी। बरवै उन्होंने अवधी मे लिखे। दोहे सोरठे तथा कवित्त-सवैये ब्रज में ही खड़ी बोली में ‘मदनाष्टक’ लिसा सस्कृत में भी उन्होंने कुछ रचनाएं कीं।
गरीबों और ज़रूरतमंदों की सहायता
रहीम अक्सर ही गरीबों और ज़रूरतमंदों की सहायता करते रहते थे। दान देते समय रहीम की आखें झुकी हुयी होती थीं। उनके इस स्वाभाव के बारे में जब तुलसीदास जी को पता चला तो उन्होंने उनके इस व्यव्हार के बारे में एक दोहा लिख कर भेजा :-
ऐसी देनी देन जू – कित सीखे हो सैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।
रहीम जानते थे कि तुलसीदास सब जानते हुए भी उनसे जानबूझकर यह प्रश्न कर रही थे। फिर भी इसके जवाब में रहीम जी ने यह दोहा लिख कर भेजा :-
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन।।
अपने बुरे दिनों में भी रहीम जी ने दान देना नहीं छोड़ा था। यदि वे कुछ देने में असमर्थ होते तो उन्हें किसी और के पास सन्देश देकर भेज देते थे। जहाँ उनकी सहायता हो सके।
उपाधियाँ
रहीम को अपने जीवन काल में मुग़ल बादशाहों ने कई उपाधियों से नवाज़ा।
- समझदार होने के कारण बादशाह अकबर ने इन्हें ‘मिर्ज़ा खां’ की उपाधि दी। यह उपाधि पहले मुग़ल बादशाहों को मिलती थी। स्वयं बाबर भी पहले ‘मिर्ज़ा’ ही था।
- सन 1579 में अकबर ने इन्हें कुलीन, समदर्शी, निःस्वार्थी और प्रजा का सच्चा सेवक जानकर इन्हें ‘मीर अर्ज़’ का पद प्रदान किया।
- सन 1584 में इन्हें अकबर ने रहीम की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें ‘खानखानां’ की उपाधि से नवाज़ा।
- टोडरमल के पश्चात इन्हें ‘वकील’ की उपाधि दी गयी।
- जहाँगीर के समय में उन्हें ‘वज़ीर-उल-मुल्क’ की उपाधि दी गयी।
रहीम दास के बारे में सामान्य जानकारी:
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( Rahim Das Ka Jivan Parichay ) रहीम का जीवन परिचय में यदि कोई जानकारी अधूरी रह गयी हो तो कृपया कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं । ( Rahim Das Ka Jivan Parichay ) रहीम का जीवन परिचय की तरह ही यदि आप किसी और महापुरुष के बारे में जानना चाहते हैं तो कमेंट जरूर करें।
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