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‘मुन्नू की पीड़ा’ पढ़ाई के बोझ पर कविता में मुन्नू नाम के बच्चे के माध्यम से, पढ़ाई के बोझ से दबे बच्चों की पीड़ा को अभिव्यक्त किया गया है। आज पढ़ाई के नाम पर बच्चों का बचपन छीना जा रहा है। माता-पिता की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं ने बच्चों को पढ़ाई में इतना व्यस्त कर दिया है कि वे बालसुलभ चंचलता और खेलकूद भूलकर यंत्रवत जीवन जीने को विवश हो रहे हैं।किसी के पास बच्चों के पास बैठने तथा उनकी इच्छाओं को जानने का समय नहीं है। टूटते परिवारों, अभिभावकों की अर्थार्जन की व्यस्तताओं और भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव से बच्चे एकाकीपन अनुभव करने लगे हैं, जिसके कारण उनका बचपन कुण्ठा और अवसाद से घिरता जा रहा है। बचपन जीवन का स्वर्णकाल होता है अतः हमें बच्चों के बचपन को खुशहाल बनाने के लिए उपयुक्त वातावरण के निर्माण के साथ ही उन्हें भावनात्मक संरक्षण देने के सार्थक प्रयास करने चाहिए।
पढ़ाई के बोझ पर कविता
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
सुबह देर कुछ हो जाए तो
पारा सबका लगता चढ़ने,
निपट इसी से जल्दी – जल्दी
चल देता है मुन्नू पढ़ने।
भरी दुपहरी घर को आकर
मुन्नू थोड़ा सुस्ताता है,
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
खाना खा फिर ट्यूशन जाता
थककर शाम ढले घर आता,
झाँका करता है खिड़की से
दोस्त न कोई पर दिख पाता।
बाहर का घिरता अँधियारा
मुन्नू के मन पर छाता है,
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
रोटी खाकर टीवी देखो
होमवर्क फिर करते रहना,
सो जाना अपने कमरे में
है मम्मी – पापा का कहना।
बचपन के स्वर्णिम दिवसों से
मुन्नू का बस यह नाता है,
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
एकसार – सा जीवन जीते
ऊब कभी लगती थी आने,
पर मुन्नू अब सिमट रहा है
अपनी दुनिया में अनजाने।
कैद पिंजरे में पंछी – सा
मुन्नू भी रो मुस्काता है,
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
धीरे-धीरे मुन्नू का यह
भोला बचपन मर जाएगा,
घुटन भरी इस नीरसता का
घाव कभी ना भर पाएगा।
कभी-कभी तो झुँझलाहट में
मुन्नू खुद पर गुस्साता है,
अपनी पीड़ा के गीतों को
मुन्नू मन ही मन गाता है।
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