कबीर के दोहे
सूचना: दूसरे ब्लॉगर, Youtube चैनल और फेसबुक पेज वाले, कृपया बिना अनुमति हमारी रचनाएँ चोरी ना करे। हम कॉपीराइट क्लेम कर सकते है
कबीर के दोहे:-
कबीर जी पढ़े लिखे नहीं थे। फिर भी कबीर जी ने इंसान को वो ज्ञान दिया जिसे विचार कर इंसान का जीवन बदल जाए। उन्होंने मनुष्यों को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए दोहों की रचना की। इन कबीर के दोहे को पढ़कर इंसान में सकारात्मकता आती है। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित होता है। इसीलिए हमने अपने पाठको के लिए कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित लेके आये है। आइये हम भी कबीर जी के इन अनमोल दोहों को ” कबीर के दोहे ” संग्रह में पढ़ें और अपने जीवन को खुशहाल बनाने का प्रयास करें।
[ध्यान दे – हमने जितने कबीर के दोहे संग्रह किया है, संख्या में अधिक होने के कारन एक पोस्ट में आना संभव नही था। इसलिए पाठको की सुविधाओ को देखते हुए हमने कबीर के दोहे को 4 पोस्ट में बांटे है, प्रत्येक पोस्ट का लिंक इस पोस्ट के अंत में दिया गया है, सभी पोस्ट पढ़िए ]
1. भक्ति बिगाडी कामिया, इन्द्रीन केरे स्वाद।
हीरा खोया हाथ सों, जन्म गंवाया बाद।।
अर्थ :- विषय भोगों के चक्कर में पडकर कामी मूर्ख मनुष्यों ने इन्द्रीयों को अपने वश में नहीं किया और सर्वहित साधन रूपी भक्ति को बिगाड दिया अर्थात् अनमोल हीरे को गंवाकर सारा जीवन व्यर्थ में गुजार दिया।
2. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ :- जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
3. ऊजल पाहिनै कपडा, पान सुपारी खाय।
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांधा जमपूर जाय।।
अर्थ :- सफेद रंग के सुन्दर कपडे पहनना और पान सुपारी खाना, यह पहनावा और दर्शन व्यर्थ है संत कबीर दास जी कहते हैं कि जो प्राणी सद्गुरू की भक्ति नहीं करता और विषय वासनाओं में लिप्त रहता है उसे यमदूत अपने पाशों नरक रुपी यातनाएँ सहना होता है।
4. जब मै था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।।
अर्थ :- जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे, अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया। प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता।
5. क्यों नृपनारी निन्दिये, पनिहारी को मान।
वह मांग संवारे पीवहित, नित वह सुमिरे राम।।
अर्थ :- राजाओं महाराजाओं की रानी की क्यों निन्दा होती है और हरि का भजन करने वाली की प्रशंसा क्यों होती है? जरा इस पर विचार कीजिए। रानी तो अपने पति राजा को प्रसन्न करने के लिए नित्य श्रुंगार करके अपनी मांग सजाती है जबकि हरि भक्तिन घट घट व्यापी प्रभु राम नाम की सुमिरण करती है।
6. संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परसते, सो भी कंचन होय।।
अर्थ :- सन्तो के साथ रहना, उनके वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना तथा उस पर अमल करना हितकारी होता है। सन्तों की संगति करने से फल अवश्य प्राप्त होता है जिस प्रकार पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है उसी प्रकार साधुओं के दिव्य प्रभाव से साधारण मनुष्य पूज्यनीय हो जाता है।
7. कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
अर्थ :- एक तरफ भारतीय हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते।
8. तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
अर्थ :- शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
9. पाँच पहर धंधे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय।।
अर्थ :- पांच पहर काम पर गए, तीन पहर नींद में बिताए, आखिरी एक पहर में भी भगवान् को याद नहीं किया, अब आप ही बताईये कि मुक्ति कैसे मिलेगी।
10. गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।
आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार।।
अर्थ :- गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन मे मैलरूपी “मैं और तू” की भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता।
11. रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय।।
अर्थ :- कबीर जी कहते हैं कि रात सो कर गवां दी, और दिन खाने-पीने में गुजार दिया। हीरे जैसा अनमोल जीवन, बस यूं ही व्यर्थ गवां दिया।
12. चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए।
वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
अर्थ :- चिंता ऐसी डाकिनी है, जो कलेजे को भी काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। वे कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
13. शीलवंत सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।
अर्थ :- जीवन में विनम्रता सबसे बड़ा गुण होता है, यह सब गुणों की खान है। सारे जहां की दौलत होने के बाद भी सम्मान, विनम्रता से ही मिलता है।
14. आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।।
एक सिंहासन चढ़ी चले, एक बँधे जात जंजीर ।
अर्थ :- जो भी व्यक्ति इस संसार में आता है चाहे वह अमीर हो या फिर गरीब हो वह आखिरकार, इस दुनिया से चला जाता है। एक व्यक्ति को धन-दौलत मिलती है जबकि दूसरा जात-पात की जंजीरों में जकड़ा रहता है।
15. गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।
अर्थ :- कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? अतः गुरु कि शरण मे जाओ। गुरु ही सच्ची रह दिखाएंगे।
16. कामी क्रोधी लालची, इनते भक्ति ना होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जादि बरन कुल खोय।।
अर्थ :- विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती। धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है। भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल, परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है। हर किसी के लिए संभव नहीं है।
17. भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनन्त।
ऊँच नीच बर अवतरै, होय सन्त का सन्त।।
अर्थ :- भक्ति का बोया बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता चाहे अनन्त युग व्यतीत हो जाये। यह किसी भी कुल अथवा जाति में ही, परन्तु इसमें होने वाला भक्त सन्त ही रहता है। वह छोटा बड़ा या ऊँचा नीचा नहीं होता अर्थात भक्त की कोई जात नहीं होती।
18. प्रीती बहुत संसार में, नाना विधि की सोय।
उत्तम प्रीती सो जानियो, सतगुरु से जो होय।।
अर्थ :- इस जगत में अनेक प्रकार की प्रीती है किन्तु ऐसी प्रीती जो स्वार्थ युक्त हो उसमें स्थायीपन नहीं होता अर्थात आज प्रीती हुई कल किसी बात पर तू-तू , मै-मै होकर विखंडित हो गयी। प्रीती सद्गुरु स्वामी से हो तो यही सर्वश्रेष्ठ प्रीती है। सद्गुरु की कृपा से, सद्गुरु से प्रीती करने पर सदा अच्छे गुणों का आगमन होता है।
19. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थ :- न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
20. प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय।
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय॥
अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
21. माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख॥
अर्थ :- माँगना मरने के बराबर है, इसलिए किसी से भीख मत मांगो। सतगुरु कहते हैं कि मांगने से मर जाना बेहतर है, अर्थात पुरुषार्थ से स्वयं चीजों को प्राप्त करो, उसे किसी से मांगो मत।
22. करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।
जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
अर्थ :- मनुष्य को अपने आप ही मुक्ति के रास्ते पर चलना चाहिए। कर्म कांड और पुरोहितों के चक्कर में न पड़ो। तुम्हारे मन के आंगन में ही आनंद की नदी बह रही है, तुम प्यास से क्यों मर रहे हो? इसलिए कि कोई पंडित आ कर बताए कि यहां से जल पी कर प्यास बुझा लो। इसकी जरूरत नहीं है। तुम कोशिश करो तो खुद ही इस नदी को पहचान लोगे।
23. दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
24. गुरु शरणगति छाडि के, करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।
अर्थ :- संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्यागकर अन्य पर भरोसा करता है उसके सुख संपती की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता।
25. पढ़ि पढ़ि के पत्थर भये, लिखि भये जुईंट।
कबीर अन्तर प्रेम का लागी नेक न छींट।।
अर्थ :- कबीर जी ज्ञान का सन्देश देते हुए कहते हैं कि बहुत अधिक पढकर लोक पत्थर के समान और लिख लिखकर ईंट के समान अति कठोर हो जाते हैं। उनके हृदय में प्रेम की छींट भी नहीं लगी अर्थात् ‘प्रेम’ शब्द का अभिप्राय ही न जान सके जिस कारण वे सच्चे मनुष्य न बन सके।
26. मन मोटा मन पातरा, मन पानी मन लाय।
मन के जैसी ऊपजै, तैसे ही हवै जाय।।
अर्थ :- यह मन रुपी भौरा कहीं बहुत अधिक बलवान बन जाता है तो कहीं अत्यन्त सरल बन जाता है। कहीं पानी के समान शीतल तो कहीं अग्नि के समान क्रोधी बन जाता है अर्थात जैसी इच्छा मन में उपजत हैं, यह वैसी ही रूप में परिवर्तित हो जाता हैं।
27. सांचे को सांचा मिलै, अधिका बढै सनेह।
झूठे को सांचा मिलै, तड़ दे टूटे नेह।।
अर्थ :- सत्य बोलने वाले को सत्य बोलने वाला मनुष्य मिलता है तो उन दोनों के मध्य अधिक प्रेम बढता है किन्तु झूठ बोलने वाले को जब सच्चा मनुष्य मिलता है तो प्रेम अतिशीघ्र टूट जाता है क्योंकि उनकी विचार धारायें विपरीत होती है।
28. जिनके नाम निशान है, तिन अटकावै कौन।
पुरुष खजाना पाइया, मिटि गया आवा गौन।।
अर्थ :- जिस मनुष्य के जीवन मी सतगुरु के नाम का निशान है उन्हें रोक सकाने की भला किसमें सामर्थ्य है, वे परम पुरुष परमात्मा के ज्ञान रुपी भंडार को पाकर जन्म मरण के भवरूपी सागर से पार उतरकर परमपद को पाते है।
29. राजपाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।
पडोसी की जो दशा, सो अपनी जान ।।
अर्थ :- राज पाट सुख सम्पत्ती पाकर तू क्यों अभिमान करता है। मोहरूपी यह अभिमान झूठा और दारूण दुःख देणे वाला है। तेरे पडोसी जो दशा हुई वही तेरी भी दशा होगी अर्थात् मृत्यु अटल सत्य है। एक दिन तुम्हें भी मरना है फिर अभिमान कैसा?
30. हरिजन तो हारा भला , जीतन दे संसार।
हारा तो हरिं सों मिले, जीता जम के द्वार।।
अर्थ :- संसारी लोग जिस जीत को जीत और जिस हार को हार समझते हैं हरि भक्त उनसे भिन्न हैं। सुमार्ग पर चलने वाले उस हार को उस जीत से अच्छा समझते हैं जो बुराई की ओर ले जाते हैं। संतों की विनम्र साधना रूपी हार संसार में सर्वोत्तम हैं।
31. कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग।
वांकू टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग।।
अर्थ :- संत स्वामी कबीर जो कहते हैं कि भूख उस कुतिया के समान है जो मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देती। अतः भूख रुपी कुतिया के सामने रोटी का टुकडा डालकर शान्त कर दो तब स्थिर मन से सुमिरन करो।
32. ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत।
सत्यवान परमार थी, आदर भाव सहेत।।
अर्थ :- ज्ञानी व्यक्ति कभी अभिमानी नहीं होते। उनके हृद्य में सबके हित की भावना बसी रहती है और वे हर प्राणी से प्रेम का व्यवहार करते है। सदा सत्य का पालन करने वाले तथा परमार्थ होते हैं।
33. शब्द सहारे बोलिय, शब्द के हाथ न पाव।
एक शब्द औषधि करे, एक शब्द करे घाव।।
अर्थ :- मुख से जो भी बोलो, सम्भाल कर बोलो कहने का तात्पर्य यह कि जब भी बोलो सोच समझकर बोलो क्योंकि शब्द के हाथ पैर नहीं होते किन्तु इस शब्द के अनेकों रूप हैं। यही शब्द कहीं औषधि का कार्य करता है तो कहीं घाव पहूँचाता है अर्थात कटु शब्द दुःख देता है।
34. नाम रसायन प्रेम रस, पीवन अधिक रसाल।
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कलाल।।
अर्थ :- संत कबीर जी कहते है कि सद्गुरू के ज्ञान का प्रेम रस पीनें में बहुत ही मधुर और स्वादिष्ट होता है किन्तु वह रस सभी को प्राप्त नहीं होता। जो इस प्राप्त करने के लिए अनेकों काठीनाइयो को सहन करते हुए आगे बढता है उसे ही प्राप्त होता है क्योंकि उसके बदले में सद्गुरू तुम्हारा शीश मांगते हैं अर्थात् अहंकार का पूर्ण रूप से त्याग करके सद्गुरू को अपना तन मन अर्पित कर दो।
35. सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्य एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भिंजी गया सब अंग।।
अर्थ :- सद्गुरू ने मुझसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा जिसका वर्णन शब्दों में कर पाना अत्यन्त कठिन है। उनके हृदय से प्रेम रुपी बादल उमड कर बरसने लगा और मेरा मनरूपी शरीर उस प्रेम वर्षा से भीगकर सराबोर हो गया।
36. सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानि।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचातानि।।
अर्थ :- उपरोक्त का निरूपण करते हुए कबीरदास जी कहते है। जो बिना मांगे सहज रूप से प्राप्त हो जाये वह दूध के समान है और जो मांगने पर प्राप्त हो वह पानी के समान है और किसी को कष्ट पहुंचाकर या दु:खी करके जो प्राप्त हो वह रक्त के समान है।
37. मोह सलिल की धार में, बहि गये गहिर गंभीर।
सूक्ष्म मछली सुरति है, चढ़ती उल्टी नीर।।
अर्थ :- मोहरूपी जल की तीव्र धारा में बड़े बड़े समझदार और वीर बह गये, इससे पार न पा सके। सूक्ष्म रूप से शरीर के अन्दर विद्यमान सुरति एक मछली की तरह है जो विपरीत दिशा ऊपर की ओर चढ़ती जाती है। इसकी साधना से सार तत्व रूपी ज्ञान की प्राप्ती होती है।
38. जो जल बाढे नाव में, घर में बाढै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम।।
अर्थ :- यदि नाव में जल भरने लगे और घर में धन संपत्ति बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से उलीचना आरम्भ कर दो। दोनों हाथो से बाहर निकालों यही बुद्धिमानी का काम है अन्यथा डूब मरोगे। धन अधिक संग्रह करने से अहंकार उत्पन्न होता है जो पाप को जन्म देता है।
39. बहुता पानी निरमला, जो टुक गहिरा होय।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय।।
अर्थ :- बहता हुआ पानी निर्मल और स्वच्छ है किन्तु रुका हुआ पानी भी स्वच्छ हो सकता है यदि थोडा गहरा हो इसी तरह बैठे हुए साधु भी अच्छे हो सकते हैं यदि वे साधना की गहराई से परिपूर्ण हो अर्थात ध्यान भजन, पूजा पाठ का ज्ञान हो।
40. बहुत जतन करि कीजिए, सब फल जाय न साय।
कबीर संचै सूम धन, अन्त चोर लै जाय।।
अर्थ :- कबीरदास जी कहते है कि कठिन परिश्रम करके संग्रह किया गया धन अन्त में नष्ट हो जाता है जैसे कंजूस व्यक्ति जीवन भार पाई पाई करके धन जोड़ता है अन्त में उसे चोर चुरा ले जाता है अर्थात वह उस धन का उपयोग भी नहीं कर पाता।
41. यह तन कांचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ।।
अर्थ :- यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े के समान है जिसे हम अपने साथ लिये फिरते है और काल रूपी पत्थर का एक ही धक्का लगा, मिटटी का शरीर रूपी घड़ा फुट गया। हाथ कुछ भी न लगा अर्थात सारा अहंकार बह गया। खाली हाथ रह गये।
42. कोई आवै भाव लै, कोई अभाव ले आव।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव।।
अर्थ :- कोई व्यक्ति श्रद्धा और प्रेम भाव लेकर संतों के निकट जाता है तो कोई बिना भाव के जाता है। किन्तु संतजनों की दृष्टि में कोई अन्तर नहीं पड़ता वे दोनों को समान दृष्टी से देखते है। न तो वे किसी के प्रेम भाव को गिनते है और न ही अभाव को अर्थात अपनी दया दृष्टी से दोनों को पोषण करते हैं।
43. काल पाय जग उपजो, काल पाय सब जाय।
काल पाय सब बिनसिहैं, काल काल कहं खाय।।
अर्थ :- काल के क्रमानुसार प्राणी की उत्पत्ति होती है और काल के अनुसार सब मिट जाते हैं। समय चक्र के अनुसार निश्चित रुप से नष्ट होना होगा क्योंकि काल से निर्मित वस्तु अन्ततः कालमें ही विलीन हो जाते हैं।
44. प्रेम पियाला सो पिये, शीश दच्छिना देय।
लोभी शीश न दे सकै, नाम प्रेम का लेय।।
अर्थ :- प्रेम का प्याला वही प्रेमी पी सकता है जो गुरु को दक्षिणा स्वरूप अपना शीश काटकर अर्पित करने को सामर्थ्य रखता हो। कोई लोभी, संसारी कामना में लिप्त मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता वह केवल प्रेम का नाम लेता है। प्रेम कि वास्तविकता का ज्ञान उसे नहीं है।
45. कागा कोका धन हरै, कोयल काको देत।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत।।
अर्थ :- कौवा किसी का धन नहीं छीनता और न कोयल किसी को कुछ देती है किन्तु कोयल कि मधुर बोली सबको प्रिय लगती है। उसी तरह आप कोयल के समान अपनी वाणी में मिठास का समावेश करके संसार को अपना बना लो।
46. जाका गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।।
अर्थ :- यदि गुरु ही अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता अर्थात शिष्य महा अज्ञानी होगा जिस तरह अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अन्धा मिल जाये वही गति होती है। ऐसे गुरु और शिष्य काल के चक्र में फंसकर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते है।
47. भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेश सुगम नित सोय।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जानै सब कोय।।
अर्थ :- सच्ची भक्ति का मार्ग अत्यन्त कठिन है। भक्ति मार्ग पर चलने वाले को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु भक्ति का वेष धारण करना बहुत ही आसान है। भक्ति साधना और वेष धारण करने में बहुत अन्तर है। भक्ति करने के लिए ध्यान एकाग्र होना आवश्यक है जबकि वेष बाहर का आडम्बर है।
48. सांचै कोई न पतीयई, झूठै जग पतियाय।
पांच टका की धोपती, सात टकै बिक जाय।।
अर्थ :- बोलने पर कोई विश्वास नहीं करता, सारे संसार के लोग बनावटीपण लिये हुए झूठ पर आँखे बन्द करके विश्वास करते है जिस प्रकार पाँच तर्क वाली धोती को झूठ बोलकर दुकानदार सात टके में बेच लेता है।
49. अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार।
मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार।।
अर्थ :- संसार के लोग अपने अपने चोर को मार डालते है परन्तु मेरा जो मन रूपी चंचल चोर है यदि वह मुझे मिल जाये तो मैं उसे नहीं मरूँगा बल्कि उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूँगा अर्थात मित्र भाव से प्रेम रूपी अमृत पिलाकर अपने पास रखूँगा।
50. साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग।।
अर्थ :- जो मनुष्य ज्ञानी सज्जनों की संगति त्यागकर कुसंगियो की संगति करता है वह सांसारिक सुखो की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। वह ऐसे मूर्ख की श्रेणी में आता है जो बहते हुए गंगा जल को छोड़ कर कुआँ खुदवाता हो।
51. कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड।
सद्गुरु की किरपा भई, नातर करती भांड।।
अर्थ :- माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है। जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है। वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते।
52. भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि आकाश।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश।।
अर्थ :- भक्ति और वेश में उतना ही अन्तर है जितना अन्तर धरती और आकाश में है। भक्त सदैव गुरु की सेवा में मग्न रहता है उसे अन्य किसी ओर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता किन्तु जो वेशधारी है अर्थात भक्ति करने का आडम्बर करके सांसारिक सुखो की चाह में घूमता है वह दूसरों को तो धोखा देता ही है, स्वयं अपना जीवन भी व्यर्थ गँवाता है।
53. भक्ति पदारथ तब मिले, जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।।
अर्थ :- कबीर जी कहते है कि भक्ति रूपी अनमोल तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब जब गुरु सहायक होते है, गुरु की कृपा के बिना भक्ति रूपी अमृत रस को प्राप्त कर पाना पूर्णतया असम्भव है।
54. भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
परमारथ के कराने, यह तन रहो कि जाव।।
अर्थ :- भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है। लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शारीर की परवाह नहीं करते। शारीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते।
55. और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निह्कर्म।
कहै कबीर पुकारि के, भक्ति करो ताजि भर्म।।
अर्थ :- कबीर दास जी कहते है कि आशक्ति के वश में होकर जीव जो कर्म करता है उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है किन्तु भक्ति ऐसा कर्म है जिसके करने से जीव संसार के भाव बन्धन से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है अतः हे सांसारिक जीवों। आशक्ति , विषय भोगों को त्यागकर प्रेमपूर्वक भक्ति करो जिससे तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा।
56. गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
अर्थ :- संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है।
57. गुरु मुरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहि।
उन्ही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटी जाहिं।।
अर्थ :- आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं – हे मानव। साकार रूप में गुरु कि मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खड़ी है इसमें कोई भेद नहीं। गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो। गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा।
58. जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकडै कोय।।
अर्थ :- हे मानव, जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो। जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी। कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता, उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
59. कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव।।
अर्थ :- अनमोल मनुष्य योनि के विषय में ज्ञान प्रदान करते हुए सन्त जी कहते है कि हे मानव! यह मनुष्य योनि समस्त योनियों उत्तम योनि है और समय बीतता जा रहा है कब इसका अन्त आ जाये , कुछ नहीं पता। बार बार मानव जीवन नहीं मिलता अतः इसे व्यर्थ न गवाँओ। समय रहते हुए साधना करके जीवन का कल्याण करो। साधु संतों की संगति करो,सद्गुरु के ज्ञान का गुण गावो अर्थात भजन कीर्तन और ध्यान करो।
60. भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवे भाय।
मन तो मैंगल होय रहा, कैसे आवै जाय।।
अर्थ :- मानव जाति को भक्ति के विषय में ज्ञान का उपदेश करते हुए कबीरदास जी कहते है कि भक्ति का द्वार बहुत संकरा है जिसमे भक्त जन प्रवेश करना चाहते है। इतना संकरा कि सरसों के दाने के दशवे भाग के बरोबर है। जिस मनुष्य का मन हाथी की तरह विशाल है अर्थात अहंकार से भरा है वह कदापि भक्ति के द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता।
कबीर के दोहे संग्रह के अन्य भाग –
2 comments
Thanks neelesh beacouse muge Kabir ke dohe exam me likhne the thanks mai ap ki vagse exam me 1 ayi hu thanks
Aap ne bhut achhe kabir ke dohe share kiye nice.