पितृ पक्ष और भोज
एक गाँव की कहानी:
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बात बहुत समय पहले की है। इतने पहले की, की सही-सही कहा नहीं जा सकता कि कितने पहले की। तो आते है बात पे। उस समय के लोग दो मान्यताओं में बंटे हुए थे।
पहली मान्यता थी धन-दौलत की। इस मान्यता में विश्वास रखने वाले लोगो के जीवन का उद्देश्य जैसे बस धन दौलत इकट्टा करना ही था। वो लोग रात दिन धन इकट्ठा करने के लिए मेहनत करते और खर्च बहुत ही कम। एक टिकली भी तब तक खर्च ना करते थे, जब तक जान दांव पे ना लग जाये।
खाने पीने में भी महा कंजूसी करते थे। अगर कोई भिखारी भी आ जाता इनके दरवाजे पे तो एक रोटी भी नहीं देते थे। बचत करने के नाम पे रुखा-सूखा ही खाते थे और रूखी-सूखी जिंदगी जीते थे। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चला आ रहा था। सब धन इकट्टा कर रहे थे पर कोई खर्च नहीं कर रहा था।
दूसरी मान्यता के लोग इसके बिल्कुल विपरीत थे। वो लोग ये धन-संपदा, माया-मोह और सारी भौतिक चीजो से दूर रहने की कोशिश करते थे। ताकि उन्हें “मोक्ष” मिल जाए। ये लोग धार्मिक जगहों जैसे की कथा, सत्संग आदि सुनने में दिन बिताते थे।
जब बात पुरुषार्थ की आती थी तो कहते थे, “चार दिन की जिंदगानी है, क्या कमाना क्या बचाना और क्या दिखावा करना। ये माटी का शरीर एक दिन माटी में मिल जायेगा। इसको सवारने में क्यों समय व्यतीत करे। सब मोह-माया है। भगवान का भजन करो और अंत समय में सद्गति पाओ।” इस प्रकार से ये लोग भी बस रुखा-सूखा खा के जिंदगी निकाल रहे थे।
इस प्रकार उस समय लोगो के बीच कोई भावनात्मक या मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कहीं नहीं दिखता था। सब नीरस जिंदगी जी रहे थे। ऐसा लगता था जैसे एक तरफ लूट मची हो और दूसरी तरफ मातम छाई हो।
एक बुजुर्ग की आखिरी इच्छा:
एक बुजुर्ग ये सब देख के बहुत ही दुखी था। उसने खुद की जवानी में जिंदगी को ऐसे नीरस ना होने दिया था। वो थोड़ा काम करता, थोड़ा आराम करता, थोड़ा खाता-पीता, जीवन के आनंद लेता था। बढ़िया जिंदगी जिया करता था। लेकिन बाकी सब लोगो को बस कठपुतलियों की तरह नीरस जिंदगी जीते देख के दुखी था। यहां तक कि उसकी अपनी संताने तक ऐसे ही थे। उसके दो बेटे थे और दोनों विपरीत मान्यताओ को मानते थे।
उस बुजुर्ग ने मरने से पहले अपने बेटों के सामने एक इच्छा रखी। उसने कहा कि, “देखो बेटे, मैंने तो अपनी जिंदगी में ज्यादा सत्संग, पूजा-पाठ नहीं किया है। ना ही धन इकट्ठा किया है जिसे मरते वक्त दान दे सकू। मैंने अपने मोक्ष का कोई रास्ता नही बनाया है। क्या तुम मेरे मरने के बाद मुझे सद्गति पाने में मदद करोगे।” उनके दोनों बेटे पिता से स्नेह रखते थे। उन्होंने पूछा, “हमें इसके लिए क्या करना होगा?”
उस बुजुर्ग ने कहा, “देखो मेरी मृत्यु जिस दिन और जिस पखवाड़े में होगी उसमे तुम पूरे 15 दिन मेरे नाम से तर्पण करना। और एक दिन घर मे मेरे पसंद के पकवान बनाओगे और सबको खिलाओगे। आस पड़ोस को और पशु पक्षियों को भी। तुम लोग मेरे नाम से ऐसा करोगे, लोगो को भोज खिलाओगे और तुम लोग भी खाओगे तो ऊपर मेरी आत्मा को संतुष्टि मिलेगी।” इस बात के लिए उसके बेटे मान गए।
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पितृ पक्ष और भोज:
फिर कुछ दिन बाद उस बुजुर्ग की मृत्यु हो गयी। उस साल तो उनके क्रिया-करम करने में समय बीत गया । अगले साल जब वही पखवाड़ा आया तब उसके एक बेटे ने सन्यास आश्रम, और दूसरे ने दिन-रात के मेहनत को कम करके घर में अच्छे-अच्छे पकवान बनवाये और सारे गाँव को निमंत्रण दे दिया। ऐसा गाँव में पहली बार हो रहा था।
बहुत से लोग निमंत्रण में आयें। सब ने जी भर के खाया और उसके बाद पूरे गाँव में इन दोनों भाइयों की वाह-वाही हुई। अब इन दोनों भाइयों की गाँव में और भी इज्जत बढ़ चुकी थी। लोग इनसे बड़े अच्छे से पेश आने लगे। ये सब देख के कुछ दुसरे लोगों ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया।
इसके बाद से ऐसा सिलसिला शुरू हुआ और देखते ही देखते कुछ सालों में सारे गांव वाले अपने पूर्वजों के तर्पण करने लगे और पूरे गाँव को भोज खिलाने लगे। खुद भी खूब खाते थे और दूसरों को भी खिलाते थे। लोगों के बीच भाईचारा और जीवन में आनंद बढ़ने लगा था। बस फिर क्या था तभी से उस गाँव में पितृपक्ष का चलन शुरू हो गया। और पितरों के नाम पे खाने खिलाने का चलन शुरू हो गया । ये सब देख के उस बुजुर्ग की आत्मा को बहुत सुकून मिला।
सीख:- अधिक धन दौलत, या फिर अधिक धार्मिकता, दोनों में कुछ नही रखा है। जिंदगी को नीरस ना होने दीजिए। वर्तमान में जियें, खाएं और खिलाये जिंदगी का लुत्फ़ उठायें। लोगों से अच्छे रिश्ते बनायें। भले ही कारन कोई भी हो।
ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है, पितृपक्ष और इसके मनाने के असली कारणों से इसका कोई लेना देना नही है। ये कहानी बस लोगो को कुछ सकारात्मक विचार रखने के सन्देश देने के लिए लिखा गया है, जो मैंने आगे बताया है।
पितृ पक्ष और भोज पर ये काल्पनिक कहानी लिखने का मेरा उद्देश्य:
आज की युवा पीढ़ी खासकर पढ़े लिखे लोगों के मुंह से अक्सर मुझे ये सुनने को मिलता है की, “ये पितृ पक्ष सब आडम्बर है। जो मर गया है वो क्या खायेगा। उनके नाम पे खुद खा रहे है। इससे कोई मोक्ष नही मिलता। यहाँ से ऊपर तक कोई टिफिन सेवा नही है। इससे कोई फायदा नही है ये सब मानना बेकार है। आदि आदि।” ये कहानी बस उन्हीं लोगों के लिए है।
मै उन्हें बस इतना सन्देश देना चाहता हूँ की, पितृ पक्ष में जो खाने खिलाने का चलन है, उससे अभी के जीवित लोगो को कोई फायदा है क्या? बिलकुल है। आजके लोगो का जीवन ऐसा हो गया है की बस काम काम और पैसे पैसे के लिए सब जी रहे है। अगर ये त्यौहार वगेरा नहीं आते तो लोग कभी घर में आनंद भरा माहोल बना के नहीं रहते।
यही वो मौके और बहाने है, जब लोग घर में खुशियों वाला माहोल बनाते है, पकवान बनाते है, खाते है खिलाते है लोगो से भाईचारा बढ़ाते है। पितृ पक्ष में तालाब में अनाज और दाले डालते है जिसे तालाब में रहने वाले जीव भोजन बनाते है। छत या मुंडेर पे रखे भोजन को पक्षी खा जाते है। कुल मिलाके फायदा तो बहुतों को है। इससे फर्क नही पड़ता की मर चुके लोगों को इससे क्या फायदा होता है। फर्क इससे पड़ता है की अभी जी रहे है उनको क्या मिल रहा है इससे। उम्मीद है इस कहानी के माध्यम से आप मेरे सन्देश को समझ गये होंगे।
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धन्यवाद।
5 comments
4बहुत बढिया लिखा है आपने।सनातन धर्म के मूल्यों की बात ही कुछ और है 🙏🙏🌺🌺
धन्यवाद रेनू जी।
आपकी लिखी रचना पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 10 सितम्बर 2022 को लिंक की जाएगी ….
https://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा … धन्यवाद!
अगर कीसी त्योहारों की वजह से पशु पक्षियों को खाना मिलता है तो कया हर्ज है ।अच्छा ही है । हम लोग हर रोज बकरियों और पक्षियों को खाना याचावल पानी देते हैँ ।
बहुत बढ़िया, अयाझ जी,