Home » हिंदी कविता संग्रह » प्रेरणादायक कविताएँ » संत और वैश्या पद्यकथा | Sant aur Vaishya Ki Padyakatha

संत और वैश्या पद्यकथा | Sant aur Vaishya Ki Padyakatha

5 minutes read

संत और वैश्या पद्यकथा  में  बताया गया है कि दूसरों के दोषों के विषय में सोचते रहने से व्यक्ति पाप का भागी बनता है। इस कहानी में एक संत वैश्या के पाप कर्मों के बारे में ही सोच सोचकर मन को कलुषित करते रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें नर्क लोक की यंत्रणा भोगनी पड़ती है। वहीं वैश्या, संत के शुभ कर्मों का चिन्तन करती हुई भक्ति – भाव में लीन रहती है, जिससे उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वास्तव में मन के विचार ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं। जिसका मन निर्मल है, वही संत कहलाने का अधिकारी है।

संत और वैश्या पद्यकथा

संत और वैश्या पद्यकथा

एक नगर की सीमा बाहर
नदी एक थी बहती,
जिसके कारण वहाँ बहुत ही
हरियाली थी रहती ।1।

इसी नदी के एक किनारे
थी प्राचीन हवेली,
वैश्या एक वहाँ रहती थी
सुन्दर और नवेली ।2।

छोटी थी तब उसे गाँव से
उठा ले गए डाकू,
मात- पिता भी उसके मारे
भोंक पेट में चाकू ।3।

पैसों के लालच में उसको
जा बेचा कोठे पर,
प्यास बुझाती जहाँ नारियाँ
अपने आँसू पीकर ।4 ।

वहीं दरिन्दों ने जी भरकर
उस कालिका को लूटा,
गिरी नजर से वह अपने ही
स्वप्न आँख का टूटा ।5 ।

पार नदी के दूजे तट पर
इक ऊँचे -से टीले,
संत रहा करते कुटिया में
वस्त्र पहन कर पीले ।6 ।

माला लेकर राम नाम का
जाप कभी वे करते,
और कभी सद् उपदेशों से
लोगों का मन हरते ।7 ।

यज्ञ हवन भी धूमधाम से
रहते थे करवाते,
कभी साज पर मंडलियों के
साथ भजन भी गाते ।8 ।

किन्तु देखते जब वैश्या को
नफरत से भर जाते,
बहुत देर तक उद्वेलित हो
सहज नहीं हो पाते । 9 ।

कहते सबसे – ” यह वैश्या है
पापों का भण्डारण,
धर्म रसातल को जाता है
ऐसों ही के कारण का10।

कोठे पर लोगों का आना
उनको नहीं सुहाता,
देखा करते कौन आ रहा
और कौन है जाता ।11 ।

सन्त पुरुष का भक्तिभाव से
उचटा रहता अब मन,
वैश्या के गर्हित कर्मों का
चलता था बस चिन्तन ।12 ।

उधर सोचती वह वैश्या थी
दुःख से आहें भरकर,
पता नहीं कब मुक्त करेगा
इस जीवन से ईश्वर ।13 ।

कर्म किए खोटे जो मैंने
ऐसा जीवन पाया,
हीरे -से दुर्लभ इस तन को
कौड़ी मोल गँवाया ।14 ।

सन्त सामने जो रहते हैं
कितने हैं वे पावन ,
रात दिवस करते रहते हैं
ईश्वर का आराधन ।15 ।

इन -सा जीवन बड़े भाग्य से
कोई जन ही पाता ,
इनके दर्शन करने भर से
पाप दूर हो जाता ।16 ।

चाह रहा मन इनके पग छू
जीवन सफल बनाना,
ठीक नहीं होगा पर मेरा
उनसे मिलने जाना ।17 ।

यही सोचकर वैश्या के मुख
गहन उदासी छाती,
करके फिर वह पूजा-अर्चन
धन्धे में लग जाती ।18 ।

पंख लगा उड़ गया समय भी
संत हो गए निर्बल,
और एक दिन निकट आ गया
उनके मरने का पल ।19 ।

दूत मौत के खड़े हो गए
आ उनके सिरहाने,
बोले – इस पल हम आए हैं
नर्क तुम्हें ले जाने ।20 ।

कहा संत ने – लगता तुमसे
भूल हुई है भारी,
अरे ! ईश -भक्ति में मेरी
उम्र गई है सारी ।21 ।

स्वर्ग लोक पाने का मैं तो
हूँ पूरा अधिकारी ,
शायद सूची गलत हो गई
नर्क लोक से जारी ।22 ।

ठीक सामने जो रहती है
वैश्या पापाचारी ,
उसके बदले आ पहुँचे तुम
लेने जान हमारी ।23 ।

लगता उसके पाप कर्म का
घड़ा भर गया पूरा,
और सन्त ने इतना कहकर
वैश्यालय को घूरा ।24 ।

किन्तु सन्त की यमदूतों ने
बात नहीं यह मानी,
बोले – देर हुई जाती है
करो न आनाकानी ।25 ।

जो भी कहना है अब तुमको
यमराजा से कहना,
हमको तो उनकी आज्ञा में
हरदम तत्पर रहना ।26 ।

प्राण हरण कर चले सन्त का
तब वे यम के चाकर ,
विचलित आत्मा हुई सन्त की
नर्क लोक में आकर ।27 ।

जीव सन्त का लगा दुःखी हो
यमराजा से कहने,
आया हूँ मैं नहीं मान्यवर
नर्क लोक में रहने ।28 ।

मैं धरती का रहने वाला
बहुत बड़ा संन्यासी,
रही सदा ही आँखें मेरी
हरि – दर्शन की प्यासी ।29 ।

भेज मुझे वैकुण्ठ लोक को
अपनी भूल सुधारें,
उस वैश्या का नाम नर्क में
लाने हेतु विचारें ।30 ।

सुन यह बात नर्क का राजा
थोड़ा – सा चकराया ,
दूत भेजकर चित्रगुप्त को
उसने वहाँ बुलाया ।31 ।

चित्रगुप्त बोले – वह वैश्या
अभी स्वर्ग में आई,
सर्पदंश के कारण उसकी
भू से हुई विदाई ।32 ।

चित्रगुप्त ने उन दोनों का
लेखा पुनः निकाला,
लिखे गए सारे कर्मों को
छान पूर्णतः डाला ।33 ।

यमराजा से कहा – देखिए
कहीं नहीं है गलती,
वरन् सन्त को गलत धारणा
आई हरदम छलती ।34 ।

स्वर्ग प्राप्ति की सभी योग्यता
वह वैश्या है रखती,
मन के सुन्दर कर्मभाव का
आज पका फल चखती ।35 ।

सुख दुःख के सब आवेगों को
एक भाव से सहती,
वैश्या होकर भी भोगों से
सदा दूर थी रहती ।36 ।

जब जब फुर्सत पाई उसने
किया ईश -आराधन,
रही महकती बदबू में भी
वह बन पावन चन्दन ।37 ।

ईश्वर में ही दृढ़ निश्चय को
थी वह रखने वाली,
अतः स्वर्ग में उसके हित थी
जगह पूर्व से खाली ।38

किन्तु संत यह भक्तिमार्ग की
मर्यादा ही भूले,
श्रेष्ठ समझकर सबसे खुद को
हरदम रहते फूले ।39 ।

वैश्या की निन्दा करने में
अतिशय सुख थे पाते,
कर्मकांड सारे करते पर
प्रभु में मन न लगाते ।40 ।

इस जीवन के अंत समय में
जैसा होता चिन्तन,
वैसी ही गति का अधिकारी
बन जाता है वह जन ।41 ।

वैश्यालय में रहकर वैश्या
करती हरि का सुमिरन,
और संत कुटिया में करते
पर – दोषों का दर्शन ।42 ।

स्वर्ग लोक में उस वैश्या को
इसीलिए पहुँचाया,
नर्क लोक में मिथ्याचारी
संत गया है लाया ।43 ।

खुश हो बोले यम के राजा
निर्णय ठीक तुम्हारा,
चित्रगुप्त जी ! उस वैश्या को
कहना नमन हमारा ।44 ।

और संत से कहा- अन्य को
देना दूषण छोड़ो,
कर्म किए खोटे तो उनके
फल से मुँह ना मोड़ो ।45 ।

तुम्हें नर्क में रहना होगा
है यह दण्ड तुम्हारा,
वश चलता है इन नियमों पर
कुछ भी नहीं हमारा ।46 ।

पापों का क्षय हो जाने तक
रहो नर्क में जाकर,
मोक्ष प्राप्ति की कोशिश करना
फिर नव जीवन पाकर ।47 ।

जीव सन्त का शान्त हो गया
जान गया सच्चाई,
किया सन्त का चोला धारण
देखी मगर बुराई ।48 ।

सच है औरों के दोषों से
जो करता मन मैला,
पुण्य गँवा वह पापों से ही
भरता जीवन -थैला ।49 ।

निर्मल मन का जन ही जग में
सच्चा संत कहाता,
स्वर्ग लोक का द्वार स्वतः ही
उसके हित खुल जाता ।50 ।

” संत और वैश्या पद्यकथा ” आपको कैसी लगी? अपने विचार हम तक कमेंट बॉक्स के माध्यम से जरूर पहुंचाएं।

पढ़िए अप्रतिम ब्लॉग की ये बेहतरीन रचनाएं :-

हमारा यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब करने के लिए यहाँ क्लिक करें । धन्यवाद।

आपके लिए खास:

Leave a Comment

* By using this form you agree with the storage and handling of your data by this website.

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More

Adblock Detected

Please support us by disabling your AdBlocker extension from your browsers for our website.