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भावनात्मक कविता कोकिल बोला | Bhavnatmak Kavita Kokil Bola


भावनात्मक कविता कोकिल बोला कविता में बसन्त के आने पर नर कोकिल के कूकने पर लोगों द्वारा दर्शायी प्रतिक्रिया का वर्णन है। नर कोकिल जोर – जोर से कूक कर अपनी विरह – वेदना व्यक्त करता है लेकिन लोग इसे उसका खुशी से झूमना समझ रहे हैं। नर कोकिल की पीड़ा की यह अभिव्यक्ति भी अब तो लोगों को शोर लगने लगी है। लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि वे दूसरे के दुःख को सुनकर हँसने लगते हैं। उचित यही है कि जैसे दुःखी व्यक्ति अब अपनी पीड़ा किसी से नहीं कहता है वैसे ही विरह – पीड़ित कोकिल का मौन रहना ही अच्छा है। आज के समय में लोगों से सहानुभूति की आशा रखना व्यर्थ है। 

भावनात्मक कविता कोकिल बोला

भावनात्मक कविता कोकिल बोला

आते ही वासन्ती मौसम
दूर कहीं पर कोकिल बोला,
ऐसा लगता जैसे इसने
कानों में मधुरस को घोला।

कुहुक-कुहुक कर बोल रहा है
बिना रुके घण्टों – घण्टों भर,
इसके आगे दुबका लगता
शेष सभी खग – वृन्दों का स्वर।

टेर रहा है किसे अरे ! यह
दे देकर आवाजें ऊँची,
प्रणय – फलक पर फेर रहा है
राग – रंग की शायद कूँची।

झलक रही इसकी वाणी से
विरह – जनित मन की ही पीड़ा,
किन्तु जगत तो इसी रुदन को
समझ रहा खुशियों की क्रीड़ा।

नहीं रहे अब वे मुनिवर जो
पिघल क्रौंच-क्रंदन से जाते,
और नहीं सिद्धार्थ रहे जो
विद्ध विहग के प्राण बचाते।

शोर सदृश लगते हैं अब तो
रे कोकिल ! तेरे पंचम स्वर,
लगता है कुछ दिन में तेरा
हो जाएगा जीना दूभर।

रख ले तू भी अपनी पीड़ा
हम जैसे ही मन में पाले,
तेरे दुःख को सुनकर अब तो
बहुत मिलेंगे हँसने वाले।

आपस का सब प्रेम मर चुका
पत्थर है अब लोगों का मन, 
आस न रख ऐसे में कोकिल
पाने की थोड़ी संवेदन।

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