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गुरु के दोहे अर्थ सहित | कबीर जी के गुरु पर दोहे

by ApratimGroup
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गुरु के दोहे अर्थ सहित  गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है। आइये जानते हैं कबीर दास जी के लिखे ( Kabir Dohe On Guru In Hindi ) गुरु के दोहे अर्थ सहित में :-

Kabir Dohe On Guru In Hindi
गुरु के दोहे अर्थ सहित

गुरु के दोहे अर्थ सहित

1.
जब मैं था तब गुरु नहीं,
अब गुरु है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।।

अर्थ :- जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे, अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया। प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता।


2.
गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं,
दुजा सब आकार।
आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार।।

अर्थ :- गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन  में मैलरूपी “मैं और तू” की भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त  हो सकता।


3.
गुरु बिन ज्ञान न उपजै,
गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।

अर्थ :- कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? अतः गुरु कि शरण मे जाओ। गुरु ही सच्ची रह दिखाएंगे।


4.
गुरु शरणगति छाडि के,
करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।

अर्थ :- संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्यागकर अन्य पर भरोसा करता है उसके सुख संपती की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता।


5.
जाका गुरु है आंधरा,
चेला खरा निरंध।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।।

अर्थ :- यदि गुरु ही अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता अर्थात शिष्य महा अज्ञानी होगा जिस तरह अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अन्धा मिल जाये वही गति होती है। ऐसे गुरु और शिष्य काल के चक्र में फंसकर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते है।


6.
भक्ति पदारथ तब मिले,
जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि भक्ति रूपी अनमोल तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब जब गुरु सहायक होते है, गुरु की कृपा के बिना भक्ति रूपी अमृत रस को प्राप्त कर पाना पूर्णतया असम्भव है।


7.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,
गढि गढि काढैं खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै  चोट।।

अर्थ :- संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है।


8.
गुरु मुरति आगे खड़ी,
दुतिया भेद कछु नाहि।
उन्ही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटी जाहिं।।

अर्थ :- आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं – हे मानव। साकार रूप में गुरु कि मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खड़ी है इसमें कोई भेद नहीं। गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो। गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा।


9.
जैसी प्रीती कुटुम्ब की,
तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़े कोय।।

अर्थ :- हे मानव, जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो। जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी। कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता, उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं।


10.
कबीर यह तन जात है,
सकै तो ठौर लगाव।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव।।

अर्थ :- अनमोल मनुष्य योनि के विषय में ज्ञान प्रदान करते हुए सन्त जी कहते है कि हे मानव! यह मनुष्य योनि समस्त योनियों उत्तम योनि है और समय बीतता जा रहा है कब इसका अन्त आ जाये , कुछ नहीं पता। बार बार मानव जीवन नहीं मिलता अतः इसे व्यर्थ न गवाँओ। समय रहते हुए साधना करके जीवन का कल्याण करो। साधु संतों की संगति करो,सद्गुरु के ज्ञान का गुण गावो अर्थात भजन कीर्तन और ध्यान करो।


11.
गुरु सों ज्ञान जु लीजिए,
सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान।।

अर्थ :- सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित करदो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो। “गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये। उनका उद्धार नहीं हो सका।


12.
गुरु गोविंद करी जानिए,
रहिए शब्द समाय।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, नहीं पलपल ध्यान लगाय।।

अर्थ :- ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने। गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें। जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम ( सुविधाजनक ) मार्ग बताया।


13.
गुरु समान दाता नहीं,
याचक सीष समान।
तीन लोक  की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान।।

अर्थ :- संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है । ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपत्ति गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवल याचना करके ही शिष्य पा लेता है।


14.
कबीर हरि के रुठते,
गुरु के शरणै जाय।
कहै कबीर गुरु रुठते , हरि नहि होत सहाय।।

अर्थ :- प्राणी जगत को सचेत करते हुए कहते हैं – हे मानव, यदि भगवान तुम से रुष्ट होते है तो गुरु की शरण में जाओ । गुरु तुम्हारी सहायता करेंगे अर्थात सब संभाल लेंगे किन्तु गुरु रुठ जाये तो हरि सहायता नहीं करते जिसका तात्पर्य यह है कि गुरु के रुठने पर कोई सहायक नहीं होता।


15.
तिमिर गया रवि देखते,
कुमति गयी गुरु ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान।।

अर्थ :- जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान रूपी उपदेश से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है। अधिक लोभ करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है। और अभिमान करने से भक्ति का नाश हो जाता है अतः लोभ आदि से बचकर रहना ही श्रेयस्कर है।


16.
मूलध्यान गुरु रूप है,
मूल पूजा गुरु पांव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है – ध्यान का मूल रूप गुरु हैं अर्थात सच्चे मन से सदैव गुरु का ध्यान करना चाहिये और गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिये और गुरु के मुख से उच्चारित वाणी को ‘सत्यनाम’ समझकर प्रेमभाव से सुधामय अमृतवाणी का श्रवण करें अर्थात शिष्यों के लिए एकमात्र गुरु ही सब कुछ हैं।


17.
कामी का गुरु कामिनी,
लोभी का गुरु दाम।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम।।

अर्थ :- कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है। उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे संतों की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं।


18.
गुरु गोविंद दोऊ खडे,
काके लागुं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

अर्थ :- गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को। ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ।


19.
कबीर गुरु सबको चहै ,
गुरु को चहै न कोय।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि सबको कल्याण करने के लिए गुरु सबको चाहते है किन्तु गुरु को अज्ञानी लोग नहीं चाहते क्योंकि जब तक मायारूपी शरीर से मोह है तह तक प्राणी सच्चा दास नहीं हो सकता।


20.
कामी कबहूँ न गुरु भजै,
मिटै न सांसै सूल।
और गुनह सब बख्शिहैं, कामी डाल न भूल।।

अर्थ :- कम के वशीभूत व्यक्ति जो सांसारिक माया में लिप्त रहता है वह कभी सद्गुरु का ध्यान नहीं करता क्योंकि हर घड़ी उसके मन में विकार भरा रहता है, उसके अन्दर संदेह रूपी शूल गड़ा रहता है जिस से उसका मनसदैव अशान्त रहता है। संत कबीर जी कहते हैं कि सभी अपराध क्षमा योग्य है किन्तु कामरूपी अपराध अक्षम्य है जिसके लिए कोई स्थान नहीं है।


21.
कुमति कीच चेला भरा,
गुरु ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।।

अर्थ :- अज्ञान रूपी कीचड़ में शिष्य डूबा रहता है अर्थात शिष्य अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहता है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धोकर स्वच्छ कर देता है।


22.
कबीर गुरु के देश में,
बसि जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बनै, जाति वरन कुल खोय।।

अर्थ :- कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है। उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है। अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है।


23.
गुरु आज्ञा मानै नहीं,
चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल।।

अर्थ :- जो मनुष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करके अपनी इच्छा से कार्य करता है। अपनी मनमानी करता है ऐसे प्राणी का लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है और काल रूपी दु:खो से निरन्तर घिरा रहेगा।


24.
गुरु आज्ञा लै आवही ,
गुरु आज्ञा लै जाय।
कहै  कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।

अर्थ :- गुरु की आज्ञा लेकर आना और गुरु की आज्ञा से ही कहीं जाना चाहिए। कबीर दास जी कहते है किऐसे सेवक गुरु को अत्यन्त प्रिय होते है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करा कर धन्य करते है।


25.
गुरु समरथ सिर पर खड़े,
कहा कमी तोहि दास।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छाडै पास।।

अर्थ :- जब समर्थ गुरु तुम्हारे सिर पर खड़े है अर्थात सतगुरु का आशीर्वाद युक्त स्नेहमयी हाथ तुम्हारे सिर पर है, तो ऐसे सेवक को किस वस्तु की कमी है। गुरु के श्री चरणों की जो भक्ति भाव से सेवा करता है उसके द्वार पर रिद्धि सिद्धिया हाथ जोड़े खड़ी रहती है।


26.
भक्ति दुलेही गुरून की,
नहिं कायर का काम।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम।।

अर्थ :- सद्गुरु की भक्ति करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है । यह कायरों के वश की बात नहीं है। यह एसे पुरुषार्थ का कार्य है कि जब अपने हाथ से अपना सिर काटकर गुरु के चरणों में समर्पित करोगे तभी मोक्ष को प्राप्त होओगे।


27.
कबीर गुरु की भक्ति का,
मन में बहुत हुलास।
मन मनसा मा जै नहीं, होन चहत है दास।।

अर्थ :- गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया। मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है।


28.
गुरु को सर पर राखिये चलिये आज्ञा माहि।

कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं।।

अर्थ :- गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है। गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता। गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है।


29.
कबीर ते नर अन्ध हैं,
गुरु को कहते और।
हरि के रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर।।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते है कि वे मनुष्य अंधों के समान है जो गुरु के महत्व को नहीं समझते। भगवान के रुठने पर स्थान मिल सकता है किन्तु गुरु के रुठने पर कहीं स्थान नहीं मिलता।


30.
गुरु मुरति गति चन्द्रमा,
सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहें, गुरु मुरति की ओर।।

अर्थ :- कबीर साहब सांसारिक प्राणियो को गुरु महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि हे मानव। गुरु कीपवित्र मूर्ति को चंद्रमा जानकर आठों पहर उसी प्रकार निहारते रहना चाहिये जिस प्रकार चकोर निहारता है तात्पर्य यह कि प्रतिपल गुरु का ध्यान करते रहें।


31.
कबीर गुरु की भक्ति बिन,
धिक जीवन संसार।
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार।।

अर्थ :- संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें।


32.
गुरु महिमा गावत सदा,
मन राखो अतिमोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद।।

अर्थ :- जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता। संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है।


33.
गुरु पारस को अन्तरो,
जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत।।

अर्थ :- गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।


34.
शब्द न करैं मुलाहिजा,
शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।


35.
गुरु बिन माला फेरते,
गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्फल गया, पूछौ वेद पुरान।।

अर्थ :– गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है।


36.
गुरु को कीजै दण्डवत,
कोटि कोटि परनाम।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान।।

अर्थ :- गुरु के चरणों में लेटकर दण्डवत और बार बार प्रणाम करो। गुरु की महिमा अपरम्पार है, जिस तरह कीड़ा भृंग को नहीं जानता किन्तु अपनी कुशलता से स्वयं को भृंग के समान बना लेता है उसी प्रकार गुरु भी अपने ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रभाव से शिष्य को अपने सामान बना लेते है।


37.
जिन गुरु जैसा जानिया,
तिनको तैसा लाभ।
ओसे प्यास न भागसी, जब लगि धसै न आस।।

अर्थ :- जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ। जैसे ओस के चाटने से सभी प्यास नहीं बुझ सकती उसी प्रकार पूर्ण सद्गुरु के बिना सत्य ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता।


38.
गुरु सों प्रीती निबाहिये,
जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत।।

अर्थ :- जिस प्रकार भी सम्भव हो गुरु से प्रेम का निर्वाह करना चाहिए और निष्काम भाव से गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए। प्रेम बिना वे दूर ही हैं। यदि प्रेम है तो वे सदैव तुम्हारे निकट रहेगें।


39.
माला फेरै कह भयो,
हिरदा गांठि न खोय।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय।।

अर्थ :- माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाँठ को आप नहीं खोलेंगे। मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो। सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी।


( Kabir Dohe On Guru In Hindi ) गुरु के दोहे अर्थ सहित आपको कैसे लगे ? ” गुरु के दोहे अर्थ सहित ” के बारे में अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।


पढ़िए गुरु को समर्पित यह बेहतरीन रचनाएं :-

धन्यवाद।

आपके लिए खास:

7 comments

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Aashish joshi अक्टूबर 9, 2023 - 7:38 अपराह्न

Jai Kabir das ji ki…:-)✨❣️💞

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Peehu जुलाई 12, 2022 - 7:00 अपराह्न

Guru Amrit saman hote hai or baki aanya sbhi vish brabar hote hai
Or
Jo guru hote ha vah hame us param atma , bhgwan , prabhu se judne me sahayta krta hai .

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Anushka जुलाई 7, 2022 - 4:48 अपराह्न

गुरु अमृत है जगत में, बाकी सब विषबेल,
सतगुरु संत अनंत हैं, प्रभु से कर दें मेल। Iska Hindi meaning please 🥺

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Omkar जुलाई 13, 2022 - 12:29 अपराह्न

गुरु अमृत मतलब एक सच्चा गुरु ही तुम्हे बता सकता है कि क्या सत्य है और क्या असत्य मतलब मोह , माया, अहंकार , ईर्ष्या काम , क्रोध असत्य है क्योंकि इससे मन को कभी शांति नही मिलती
एक सच्ची शांति जिसे लोग अमृत कहते है वे सच्चे गुरु के वचन में होता है जो विकारों से दूर परमात्मा का अनुभव से प्राप्ति होता है ध्यान से होता है वो ध्यान चाहे किसी रूप का हो बस प्रीति उसमे लग जाए और पूर्ण समर्पण हो तब अमृत की तरह लगेगा हर क्षण

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yash vardhan rathor जून 20, 2022 - 12:28 अपराह्न

thanks for giving this

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Sahithya मार्च 3, 2022 - 2:42 अपराह्न

Can we get more dohe of Kabir Das and Sur Das ?

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Pari जनवरी 5, 2022 - 3:47 अपराह्न

I love kabir dar ji dohe

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