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भगवान् कृष्णा की लीलाओं का कोई अंत नहीं। उनकी महिमा जितनी गाई जाए उतनी कम है। बचपन से लेकर युवावस्था तक न जाने कितने चमत्कार किये हैं। ऐसा ही एक चमत्कार उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा कर किया था। वो कृष्णा जी ही थे जिन्होंने गोवर्धन पूजा की शुरुआत की। उन्होंने ही गोवर्धन पर्वत का महत्त्व गोपों को बताया। उन्होंने ऐसा कब और क्यों किया आइये जानते हैं :-
गोवर्धन पूजा की शुरुआत
कृष्ण भगवान् का बचपन गोकुल और वृन्दावन में बीता। उन्होंने गौएँ चरायीं। चोरी-चोरी खूब सारा माखन खाया। इतना ही नहीं गोपियों को भी बहुत सताया। लेकिन फिर भी सब के लाडले बने रहे। वे गौएँ चराने गोवर्धन पर्वत की ओर जाया करते थे।
एक बार वृन्दावन में रहते हुए जब कृष्णा जी ने एक दिन देखा की व्रजवासी इंद्र यज्ञ की तैयारी कर रहे थे। हालाँकि कृष्ण भगवान् को सब पता था फिर भी उन्होंने अनजान बनते हुए उन्होंने नन्द बाबा से पूछा कि पिता जी ये यज्ञ किसके लिए किया जा रहा है और क्यों?
नंदबाबा ने तब जवाब दिया,
“पुत्र ये यज्ञ इंद्रा देवता के लिए किया जा रहा है। क्योंकि वे वर्षा के स्वामी हैं। उन्हीं की कृपा से ये वर्षा होती है और यज्ञ में प्रयोग होने वाली सामग्री भी वर्षा के कारण ही प्राप्त होती है। खेतों में होने वाली फसल भी इंद्रा देव द्वारा वर्षा किये जाने पर होती है। और सबसे बड़ा कारण ये है कि ये यज्ञ हमारी कुलपरम्परा से चला आ रहा है। अदि यह यज्ञ न किया जाए तो किसी का मंगल नहीं होता।”
यह सुन कर कृष्णा जी ने कहा,
“पिता जी हमारा जीवन कर्म पर आधारित है। हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल हमको प्राप्त होता है। हम सब अपने किये कर्मों का फल भोग रहे हैं। जिसमे इंद्र का कोई भी योगदान नहीं। इसलिए वर्षा हो या न हो इससे इंद्र देव का कुछ लेना देना नहीं है। यदि पूजा करनी ही है तो गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज की कीजिये। जिनके कारण अपनी आजीविका चलती है।
जो सामग्री इंद्र यज्ञ के लिए एकत्रित की गयी है। स्वादिष्ट पकवान बनाये जाएँ, व्रज का सारा दूध इकठ्ठा कर लीजिये। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ पूर्ण करवाया जाए। उसके पश्चात उन ब्राह्मणों को गौओं के साथ दक्षिण दी जाए। सभी को भरपेट भोजन देकर गिरिराज को भोग लगाया जाए। नए-नए वस्त्र पहन कर सबको प्रदक्षिणा दी जाए। यदि आपको यह अच्छा लगे तो ऐसा करें। मुझे तो यही पसंद है।”
ऐसा करने के पीछे कृष्ण भगवन का उद्देश्य इंद्र का घमंड चूर-चूर करना था। नंदबाबा को यह बात उपयुर्क्त लगी। उन्होंने ने कृष्ण भगवन के बताये अनुसार ही गौओं, ब्राह्मणों और गोवर्धन पर्वत की पूजा-अर्चना की।
जब इंद्रा को इस बात का पता चला की व्रजवासियों ने उनकी पूजा करना बंद कर दिया है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। नंदबाबा सहित और गोपों को सबक सीखाने के लिए इंद्र ने मेघों के सांवर्तक नमक गण को व्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और स्वयं बाद में आने का आश्वासन दिया।
मेघों ने व्रज पर मूसलाधार वर्षा आरंभ कर दी। चारों और बिजलियाँ चमकने लगी। सारे व्रज में पानी-पानी हो गया। जल से सारी धरती एक सामान हो गयी थी। धरती कहाँ ऊंची है और कहाँ नीची इस बात का आभास लगाना भी मुश्किल था। उस समय सरे व्रज वासी भगवान् कृष्ण के पास सहायता मांगने के लिए पहुंचे।
भगवान् कृष्ण को इस बात का आभास हो गया था कि यह इंद्र की ही करतूत है। लेकिन भगवान् कृष्णा ने यह लीले स्वयं ही रची थी जिससे इंद्रा का घमंड टूट सके। सब गोपों, उनके परिवारों और उनके धन की रक्षा के लिए भगवान् कृष्ण ने उसी गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊँगली से उठा लिया जिनकी उन्होंने पूजा करवाई थी।
गोवर्धन पर्वत को उठाते समय भगवान् कृष्ण की आयु मात्र 7 वर्ष थी। उन्होंने यह पर्वत 7 दिनों तक उठा कर रखा था। 7 दिनों बाद जब इंद्र ने देखा कि उनके द्वारा निरंतर घनघोर वर्षा करने के बावजूद व्रजवासी सुरक्षित हैं तो वह भौंचक्के रह गए। उनका घमंड उसी समय चकनाचूर हो गया।तब उन्होंने मेघों को वापस भेज दिया और उसी समय बदल हट गए और धूप चारों और फ़ैल गयी।
तब भगवान् कृष्ण ने सब गोपों को कहा कि अब सब सुरक्षित हैं और बाढ़ का भी जल अब कम हो रहा है। सबके चले जाने के बाद भगवान् कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को दुबारा उन्हीं के स्थान पर रख दिया।
इस लीला के बाद सरे व्रजवासी उनकी जय-जयकार करने लगे। उस दिन के बाद जिस दिन कृष्णा भगवान् ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था उस दिन से गोवर्धन पूजा शुरू की गयी। ये पूजा दिवाली के अगले दिन की जाती है। इस पूजा में गोवर्धन को देवस्वरूप मान कर घर-घर में गोबर से गोवर्धन बनाकर पूजा की जाती है।
गोबर से गोवर्धन बनाने की परम्परा ऋषि-मुनियों ने इस उद्देश्य से आरंभ की थी कि गोबर और गायों को भी उनका उचित सम्मान मिल सके।
गोवर्धन पर्वत की कहानी
वैसे तो ब्रज मंडल में तीन प्रसिद्द पर्वत हैं। पहला है बरसना पर्वत जिसे ब्रह्मा का रूप मन जाता है। इसी प्रकार नन्दीश्वर को शिव का और गोवर्धन को विष्णु का रूप माना जाता है। यह पहली बार नहीं था जब भगवान् कृष्ण ने गोवर्धन को उठाया था। इस से पहले इसे एक बार पुलस्त्य मुनि और हनुमान जी ने उठाया है। आज जो गोवर्धन पर्वत मात्र एक प्रतीक भर बन कर रह गया है। द्वापर युग में यह बहुत ही बड़ा पर्वत था। ऐसा भी कहा जाता है की ये पर्वत 30,000 मीटर ऊंचा था। किन्तु एक श्राप के कारण यह पर्वत हर पल घटता रहा।
इस श्राप के पीछे की घटना कुछ ऐसी है कि एक बार पुलस्त्य मुनि उत्तराखंड की भूमि पर तपस्या कर रहे थे। तपस्या के दौरान उन्हें इस बात की अनुभूति हुयी कि गोवर्धन पर्वत के नीचे साधना करने से सिद्धि प्राप्त होती है। यह विचार आते ही पुलस्त्य मुनि गोवर्धन के पिता द्रोण के पास गए। पिता द्रोण पुलस्त्य मुनि को इंकार नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने सहर्ष ही अपने पुत्र गोवर्धन को पुलस्त्य मुनि के हवाले कर दिया।
तभी गोवर्धन जी ने पुलस्त्य मुनि के समक्ष एक शर्त रख दी कि अगर यात्रा के दौरान पुलस्त्य मुनि ने गोवर्धन को कहीं भी नीचे रखा तो वे वहीं स्थापित हो जायेंगे। जब पुलस्त्य मुनि गोवर्धन को उठाये जा ही रहे थे की रास्ते में ब्रज आ गया। उसी समय गोवर्धन को आभास हुआ कि यही तो कृष्ण भगवान् को अपनी लीले रचनी है। यही सोच कर गोवर्धन हर क्षण भारी होते चले गए। तभी पुलस्त्य जी को भी लघु शंका का आभास हुआ। उन्होंने गोवर्धन को अपने शिष्य को देते हुए लघु शंका के लिए प्रस्थान किया।
गोवर्धन के बढ़ते वजन के कारण पुलस्त्य मुनि के शिष्य का हौसला जवाब देने लगा। जब बात उसके बस से बहार हो गयी तो उसने गोवर्धन को नीचे रख दिया और अपने दिए वचन अनुसार गोवर्धन वहीं स्थापित हो गए।
जब पुलस्त्य मुनि वापस आये तो उन्हों गोवर्धन को उठाने का बहुत प्रयास किया। परन्तु सफल न हुए। इस बात पर उन्हें क्रोध आ गया और उसी क्रोध में उन्होंने गोवर्धन को श्राप दे दिया कि आज के बाद तुम तिल-तिल कर घटते रहोगे।
उस दिन से गोवर्धन पर्वत लगातार घट रहा है।
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तो कैसी लगी आपको गोवर्धन पूजा की शुरुआत और गोवर्धन पर्वत की कहानी? हमें जरूर बतायें।
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धन्यवाद।