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विल्मा रुडोल्फ की कहानी | Wilma Rudolph Biography In Hindi

by Sandeep Kumar Singh
6 minutes read

 

जिंदगी हौसलों से भरी हो तो कोई कमजोरी इंसान को कभी भी आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। इन्सन अपनी हिम्मत से ऐसे कारनामे कर सकता है, जिसे अच्छे अच्छे अनुभवी इन्सान असंभव मानते हैं। ऐसे कई इन्सान हैं दुनिया में, जो अपनी जिद्द पूरी कर के सबको हैरान कर देते हैं। ऐसी ही एक महान स्त्री थीं :- विल्मा रुडोल्फ । आइये जानते हैं विल्मा रुडोल्फ के जीवन के बारे में ” विल्मा रुडोल्फ की कहानी ” में

विल्मा रुडोल्फ की कहानी

विल्मा रुडोल्फ की कहानी | Wilma Rudolph Biography In Hindi

विल्मा रुडोल्फ का जन्म अमेरिका के एक गरीब परिवार में हुआ था। वह एक अश्वेत परिवार में जन्मी थीं। उस समय अश्वेत लोगों को दोयम दर्जे का इंसान माना जाता था। उनकी माँ नौकरानी का काम करती थीं। और पिता कुली का काम करते थे।

बचपन में विल्मा के पैर में बहुत दर्द रहता। इलाज करने के बाद पता चला कि विल्मा को पोलियो हुआ है। उनका परिवार बहुत गरीब था। फिर भी ये माँ की हिम्मत और जज्बा ही था, जिसने विल्मा को कभी हारने नहीं दिया।


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अश्वेतों को उस समय सारी सहूलतें नहीं दी जाती थीं। इसी कारण विल्मा की माँ को उसके इलाज के लिए 50मील दूर ऐसे अस्पताल में ले जाना  पड़ता था, जहाँ अश्वेतों का इलाज किया जाता था।

वो सप्ताह में एक दिन अस्पताल जाती थीं। और बाकी के दिन घर पर ही इलाज होता था। पांच साल के इलाज के बाद विल्मा कि हालत में कुछ कुछ सुधार होने लगा। धीरे-धीरे विल्मा केलिपर्स के सहारे चलने लगी। विल्मा का इलाज करने वाले  डॉक्टरों ने विल्मा कि माँ को जवाब दे दिया, कि अब विल्मा कभी बिना सहारे के नहीं चल पाएगी।

पर कहते हैं न, कि जब  मन में ठान ली जाये तो चट्टानों को भी गिरा कर रास्ता बनाया जा सकता है। विल्मा की माँ हार मानने वालों में से नहीं थी। वो सकारात्मक सोच रखने वाली माहिला थीं। विल्मा अपने आप को किसी भी प्रकार कमजोर न समझे, इसलिए उसकी माँ ने एक स्कूल में उसका दाखिला करवा दिया। स्कूल में एक बार खेल प्रतियोगिता रखी गयी।

जब दौड़ प्रतियोगिता शुरू हुयी तो विल्मा ने माँ से पुछा,
“माँ क्या मैं भी कभी इस तरह दौड़ पाऊँगी?”
इस सवाल पर उनकी माँ ने जवाब दिया,
“अगर इंसान में लगन हो, सच्ची भावना हो, कुछ पाने कि चाहत और इश्वर में विश्वास हो तो कुछ भी कर सकता है।”


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जब विल्मा 9 साल कि हुयी, तो उसने खुद चलने कि कोशिश की। लेकिन केलिपर्स के कारण वह सही ढंग से नही चल पाती थी। तब उसने अपनी माँ से जिद कर के केलिपर्स उतार दिए। उसके बाद जब-जब उसने चलने कि कोशिश की तो कभी कई दफा गिरने के कारण चोट लगी। दर्द कि परवाह न करते हुए और अपनी माँ की बात को मन में याद कर वो बार-बार कोशिश करती रही।

उसकी कोशिश रंग लायी और 2 साल बाद जब वह 11 साल कि हुयी, तो वो बिना किसी सहारे के चलने लगी। जब विल्मा की माँ ने इस बारे में विल्मा के डॉक्टर के. एम्वे. से बात की, तो वे उसे देखने घर आये। वहां डॉक्टर ने जब विल्मा को चलते देखा तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। डॉक्टर के. एम्वे.  ने उसी समय विल्मा को शाबाशी देकर उसका हौसला बढाया।

विल्मा रुडोल्फ के अनुसार डॉक्टर एम्वे. की उस शाबाशी ने जैसे एक चट्टान तोड़ दी। और वहां से एक उर्जा की धारा बह उठी। विल्मा ने उसी समय सोच लिया कि उसे एक धावक(दौड़ाक) बनना है। अब वो एक पाँव में ऊँचे ऐड़ी के जूते पहन कर खेलने लगी। डॉक्टर ने उसे बास्केट्बाल खेलने की सलाह दी।

विल्मा की माँ ने उसका ये सपना पूरा करने के लिए पैसे न होने के बावजूद किसी तरह एक प्रशिक्षक का प्रबंध किया। स्कूल वालों के लिए ये अच्छी खबर थी कि स्कूल की कोई छात्रा नामुमकिन छेज को मुमकिन कर के दिखा रही थी। इसलिए स्कूल मैनेजमेंट ने भी विल्मा को पूरा सहयोग दिया।

1953 में जब विल्मा रुडोल्फ 13 साल की थीं, तब पहली बार उन्होंने अंतर्राविद्यालय  दौड़ प्रतियोगिता में भाग लिया। लेकिन इस प्रतियोगिता में उन्हें आखिरी स्थान मिला। विल्मा इस बात से आहत नहीं हुयी। अपनी कमियों को तलाश वो एक-एक कर उन्हें दूर करने लगीं। वो लगातार 8 बार विफल हुयी। पर कोशिश रंग लायी जब 9वीं  बार विल्मा ने अपने प्रयास के ज़रिये पहली बार विजय का स्वाद चखा। इसके बाद उन्होंने अपनी कमजोरी को कभी अपनी सफलता के आड़े नहीं आने दिया।

15 वर्ष की अवस्था में जब विल्मा ने टेनेसी राज्य विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तो वह उसकी मुलाकात कोच एड टेम्पल से हुयी। विल्मा ने टेम्पल को अपने दिल कि बात बताई कि वो एक तेज धाविका बनना चाहती है। ये सुन कर कोच ने उससे कहा, ‘‘तुम्हारी इसी इच्छाशक्ति की वजह से कोई भी तुम्हें रोक नहीं सकता। और मैं इसमें तुम्हारी मदद करूँगा।”


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विल्मा के जज्बे ने ऐसा रंग दिखाया कि उसे ओलिंपिक में खेलने का मौका मिला। 1960 में जब विल्मा 21 साल की थीं तब उन्हें ओलिंपिक में खेलने का मौका मिला।  विल्मा ने ओलिंपिक की अपनी पहली ही दौड़ में उस वक़्त की प्रसिद्ध तेज धाविका “जुत्ता हेन” को हरा कर 100मीटर कि दौड़ प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता।

इसके बाद जब 200मीटर कि दौड़ प्रतियोगिता हुयी, तो उसमे भी विल्मा का मुकाबला “जुत्ता हेन”  से ही होना था। विल्मा ने इस बार भी जीत अपने नाम दर्ज की। हैरानी तो तब हुयी जब 400मीटर की रिले दौड़ में विल्मा के सामने एक बार फिर “जुत्ता हेन” आयीं। विल्मा की टीम के तीन लोग रिले रेस के शुरूआती तीन हिस्से में बहुत तेज दौड़े और आसानी से बेटन बदलते गए।

विल्मा सबसे तेज दौड़ती थीं। इसलिए  उनकी बारी आखिरी थी। जब उनकी बारी आई तो जल्दबाजी में  बेटन उनके हाथ से छूट गयी। “जुत्ता हेन”  बड़ी तेजी के साथ अपने लक्ष्य कि तरफ बढ़ रही थीं। ये देख विल्मा ने बेटन उठाई और इतनी ते दौड़ी कि सब देखते रह गए। इस बार उनको तीसरा स्वर्ण पदक मिला।

विल्मा दौड़ प्रतियोगिता में 3 मैडल जीतने वाली अमेरिका की प्रथम अश्वेत महिला खिलाडी बनी। अखबारो ने उसे ब्लैक गेजल की उपाधी से नवाजा। बाद में वे अश्वेत खिलाडियों के लिए एक आदर्श बन गयीं। उनके घर वापसी के बाद एक भोज समारोह का आयोजन  किया गया जिसमें श्वेत और अश्वेत अमेरिकियों ने एक साथ हिस्सा लिया।

विल्मा रुडोल्फ के लिए ये जीत जिंदगी कि बड़ी जीत थी। उन्होंने डॉक्टर कि बात को झूठा साबित कर दिया था। इस सबका श्रेय वह अपनी माँ को देती हैं। उनके अनुसार अगर उनकी माँ उनका इतना साथ ना देती तो ये कभी मुमकिन न हो पाता।


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इसी तरह हमें भी अपनी जिंदगी में हर पल संघर्ष करना चाहिए। असफलता नाम का शब्द उन लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता जो आगे बढ़ने कि ठान लेते हैं। कोशिश करते रहिये आपको आपकी मंजिल जरुर मिलेगी।

” विल्मा रुडोल्फ की कहानी ” के बारे में अपने विचार और विल्मा रुडोल्फ की कहानी से आपने क्या सीखा? कमेंट कर के हमें जरूर बताएं।

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धन्यवाद।

आपके लिए खास:

4 comments

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Afsana khatun अक्टूबर 19, 2022 - 1:28 अपराह्न

Es kahani se bahut sikh mila har koi koi ko kuch sikhna chahiye

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neelesh जनवरी 30, 2018 - 11:41 पूर्वाह्न

Bhut achhi jankari Di sir aapne nice.

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Mr. Genius
Mr. Genius जुलाई 1, 2016 - 8:33 पूर्वाह्न

जमशेद आजमी जी अपने बिलकुल सही कहा। समाज को बदलाव की अवश्यकता है।

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जमशेद आज़मी जून 30, 2016 - 11:54 अपराह्न

विल्‍मा रूडोल्‍फ के बारे में पढ़ कर बहुत अच्‍छा लगा। अश्‍वेतों के साथ तो आज भी दोयम दर्जे का व्‍यवहार किया जाता हैै। पर परिस्थितियां धीरे धीरे बदल रही हैं।

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