Home » पुस्तक समीक्षा » चार अधूरी बातें – साइकोलॉजिकल काउंसलिंग पर एक लघु उपन्यास | पुस्तक समीक्षा

चार अधूरी बातें – साइकोलॉजिकल काउंसलिंग पर एक लघु उपन्यास | पुस्तक समीक्षा

by Chandan Bais
6 minutes read

“कितना मुश्किल होता है, किसी की पीड़ा को आत्मसात करना? क्या किसी भी तकलीफ़ या दुःख को मापने का कोई मापदंड है? क्यों अक्सर हम हर किसी के चरित्र को अपने हिसाब से गढ़ते हैं, यह जाने बिना की  सामने वाले की मनःस्थिति क्या है?” * ये सवाल है एक मनोचिकित्सक (साइकेट्रिस्ट) के मन की। अभिलेख द्विवेदी के लघु उपन्यास “चार अधूरी बातें” में।

जब वेदनाओ से भरे लोग एक मनोचिकित्सक के सामने अपनी वेदनाओ को व्यक्त करते है, तब उनकी मनःस्थिति कैसी होती होगी? इन्हीं बातों को बताता ये एक लघु उपन्यास है “चार अधूरी बातें” जिसके लेखक है अभिलेख द्विवेदी। सबसे पहले तो मै अभिलेख जी को उनके पहले उपन्यास प्रकाशित होने पर बधाई देता हूँ। आइये जानते है इस किताब की कुछ खास और आम बातें।

चार अधूरी बातें – पुस्तक समीक्षा

चार अधूरी बातें - पुस्तक समीक्षा

उपन्यास एक नजर में:

शीर्षक : चार अधूरी बातें
लेखक : अभिलेख द्विवेदी
प्रारूप : उपन्यास
पृष्ठ : 92

उपन्यास चार अधूरी बातें का मुख्य सार:

“कुछ चोट वक़्त बीतने के बाद भी निशान बन कर जिस्म पर रह जाते हैं। उनमें उभार होता है एक सूनापन लिए। लेकिन चोट की असली वजह का डर अक्सर कौंध ही जाता है जहन में। न ख़तरा होते हुए भी निशान को हर संभव नए चोट से बचने की कोशिश चलती रहती है।”*

ऐसी ही चोट खायी चार महिलाएं है इस उपन्यास में। जो चोट के कारण लगे अलग-अलग लत, (ड्रग, लेस्बियन,सेक्स और अल्कोहल की) और अकेलेपन की घुटन से बाहर आने के लिए एक मनोचिकित्सक के पास जाती है। लेकिन वो भी तो एक इन्सान होते है। जब ये महिलाएं उनके पास जाके अपनी वेदनायें व्यक्त करती है तब मनोचिकित्सक कैसे-कैसे मनःस्थिति और परिस्थितियों का सामना करता है। जैसे की इस लाइन में पता चलता है,

“सबसे मुश्किल होता है खुद की संवेदनाओ को जताना जब सामने वाला आपको अपनी संवेदनाओ से बोझिल कर रहा हो। मुझे जताना नहीं था और उसकी संवेदनाओ से बोझिल भी नही होना था। शायद मेरे लिए वह इम्तेहान बन कर आई थी।”*

कहानी का मुख्य पात्र और सूत्रधार वो मनोचिकित्सक है, जिसके पास ये महिलाएं जाती है। ये महिलायें जो किन्ही तरीकों से एक दूसरे से संबधित होती है, एक के बाद एक मनोचिकित्सक के पास जाती है। मनोचिकित्सक इनकी समस्याओं को समझने के लिए इनकी पिछली जिंदगी को खंगालने लगता है। जिसमें कुछ ऐसी झकझोर देने वाली घटनाएं सामने आती है जो आज के समाज में अक्सर होती रहती है।

समाज की इन कुरीतियों को भी लेखक ने एक मुद्दे की तरह उठाया है। इन महिलाओं की वेदनाओ को सुनने और समझने के साथ मनोचिकित्सक की मनःस्थिति कैसे बदलती जाती है। एक तरफ उसे अपने पेशे के प्रति इमानदार रहना होता है दूसरी तरफ अपनी खुद की भावनाओं के प्रति। मनोचिकित्सक के मन की यही जद्दोजहद कहानी का मुख्य आधार है।

उपन्यास के पात्र:

लेखक के शब्दों में, “घटनाओं और किरदारों को खुद गढ़ा है मैंने। लेकिन ऐसा करने के लिए इनसे जुड़ी किताबें, फॉरेन की वेब सिरीज़, और कुछ लोगों से ऐसे किरदारों के बारे में बात कर के उनकी सोच, मानसिकता और व्यवहार जानने की कोशिश करता था। सब काल्पनिक है लेकिन हर चीज़ कहीं न कहीं से प्रेरित है।”

इस उपन्यास में मुख्य पात्र मनोचिकित्सक है। जो सूत्रधार भी है और कहानी के साथ-साथ अपनी भावनाएं और कुछ साइकोलॉजिकल बातें भी शेयर करता रहता है।

चार महिलाएं है। संदली, जोकि मनोचिकित्सक के कॉलेज की बैचमेट भी थी। इसे स्मोकिंग की लत लगी होती है। संजीदा, इसे हर बात तुकबंदी में कहने की आदत है। ये भी उसके कॉलेज में बैचमेट थी। ये लेस्बियन होती है। संयुक्ता, संदली और संजीदा की रूममेट जो निम्फोमेनिया से पीड़ित है। मतलब जिस्म की लत। संध्या, जिसे शराब की लत है।


सम्बंधित पोस्ट:


उपन्यास लेखन:

लेखक इस उपन्यास के माध्यम से खासकर के अंग्रेजी पढ़ने वालों को ये बताना चाहता है कि हिंदी में भी अभी पढ़ने के लिए बहुत कुछ है। हिंदी के लिए प्रेरित करने की इसी भावना के साथ लेखक ने इस टॉपिक पर ये उपन्यास हिंदी में लिखा है। लेखन का अंदाज, शब्द और वाक्य आज के बोलचाल के हिसाब से है। सूत्रधार के रूप में जैसे बीच-बीच में साइकोलॉजिकल बातें वो बताता रहता है, वो काफी आकर्षक और बढ़िया है। कोई घुमावदार वाक्य और बड़े बड़े साहित्यिक शब्द नही है।

उपन्यास की खास बातें :

इस उपन्यास की खास बात तो इसका उद्देश्य है। जो आप लेखक के शब्दों में पढ़िए,

“मेरा उद्देश्य यह था कि ऐसा कुछ लिखूं जो अब तक किसी भी भाषा में न लिखा गया हो। मैं औरों की तरह दलित साहित्य, रोमांस और उन बातों को नहीं लाना चाहता जिससे लोग ऊब चुके हैं। मुझे हर इंसान चाहे स्त्री या पुरूष का वो पहलू दिखाना था जिससे वो छुपता और छुपाता फिरता है। कॉउंसलिंग को लेकर बहुत कुछ बताना चाहता था। एक मनोचिकित्सक की मानसिक स्तिथि क्या होती है, वो किन परिस्थितियों से गुज़रता है यह सब दिखाना चाहता था। ज़रूरी नही हर समय प्रेम एक कपल को लेकर हो, मुझे यह धारणा बदलनी थी। ऐसी ही और इनसे जुड़े मेरे खयाल थे इस किताब को लिखने के पीछे।”

उपन्यास की कमजोरियां:

ये एक साइकोलॉजिकल काउंसलिंग पर आधारित उपन्यास है। जो अपने आप में एक दमदार टॉपिक है। और लेखक ने भरपूर कोशिश की है इस कहानी को आज के समय के हिसाब से रीयलिस्टिक बनाने की। इसलिए, जो लोग ज्यादा काल्पनिक, कॉमेडी, सस्पेंस या इस तरह की किताब ही पढ़ना पसंद करते है, उन्हें ये थोड़ा बोरियत जरुर महसूस करा सकता है।

दूसरी बात कहानी का आरम्भ और अंत कुछ अधूरा सा लगता है। मतलब किसी घटना के बीच से शुरू और बीच में ही अंत हुआ लगता है। शायद ये किताब के शीर्षक की वजह से लेखक ने ऐसा बनाया है। लेकिन बाकी कहानियों में एक परिचय और अंत होता है, जो कहानी या किताब से सम्बंधित रही-सही बातें पूरी करती है उसकी कमी यहाँ मुझे महसूस हुआ।

अंत में:

लेखक ने बड़े ही अच्छे उद्देश्य से ये किताब लिखा है। और अपने उद्देश्य को पूरा करने में सक्षम भी रहे है। ऐसे टॉपिक में उपन्यास हिंदी में मिलती नही है। पूरी कहानी 92 पेज में सिमटा हुआ है। इसलिए ज्यादा समय भी नहीं लेती ये किताब पूरा करने में। कुछ पाठकों ने इसके कवर को भी पसंद किया है। फिजिकली भी ये किताब क्वालिटीदार लगती है। जैसे इसके कवर, पन्ने, फॉण्ट आदि। मैं अपने पाठकों को ये सलाह जरुर दूंगा की अगर आप इस टॉपिक में दिलचस्पी रखते हैं, तो ये किताब एक बार जरुर पढ़े। अगर आपने पढ़ लिया है तो इसके बारे में अपने विचार हमें जरुर बतायें।

ये किताब यहाँ से ख़रीदे:

उम्मीद है आपको ये किताब जरुर पसंद आएगी। धन्यवाद।

अन्य पुस्तक समीक्षाएं:


*पुस्तक से ली गयी।

आपके लिए खास:

Leave a Comment

* By using this form you agree with the storage and handling of your data by this website.

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More

Adblock Detected

Please support us by disabling your AdBlocker extension from your browsers for our website.