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अकसर जिंदगी में हम बीते समय में कुछ सही न कर वर्तमान में अफ़सोस जताते हैं। बीता हुए समय को सोच हम कहते हैं :- अगर ऐसा होता तो ये होता, वैसा होता तो वो होता। लेकिन बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता फिर हम वर्तमान के लिए कहते हैं :- मगर अभी मेरे पास वक़्त है। मैं इस वक़्त के साथ चल कर अपना आने वाला कल बदलूंगा। इसी परिस्थिति को दर्शाती कविता “ अगर-मगर ” आपके सामने पेश कर रहे हैं :-
अगर-मगर
अगर मैं चलता रहता राहों पर
तो मंजिल मिल भी सकती थी
कोशिशें करता रहता हर पल तो
ये मजबूत चट्टानें हिल भी सकती थीं,
हवाएं खिलाफ थीं मेरे तो क्या हुआ
तूफानों में किश्ती मेरी चल भी सकती थी
बहुत हमसफ़र मिले थे मुझे
कारवां आगे बढ़ाने को
हाथ एक का भी थामा होता तो
किस्मत बदल भी सकती थी।
आसमान की चाह में
ज़मीन छोड़ दी थी मैंने
उड़ान थोड़ी जान से भरी होती तो
हौसलों की आग सीने में जल भी सकती थी
वक़्त दौड़ रहा था मेरे आगे-आगे
साथ चलता तो मुसीबत निकल भी सकती थी।
मगर शुक्रगुजार हूं रब का
कि अभी मेरे शरीर में जान बाकी है
खो चुका हूँ बहुत कुछ लेकिन
सब वापस पाने का अरमान अभी बाकी है
सफर जारी रखूँगा मैं, निशान अपने क़दमों के
मंजिल तक पहुँचाने को
मजबूत इरादे ही काफी हैं मेरे
बड़ी-बड़ी चट्टानों को हिलाने को
बाज ही निकलते हैं तूफानों में अकसर
पंछी मुड़ जाते हैं अपने आशियाने को
जरूरी नहीं की सहारा मिल ही जाए रास्तों में
सर पे जुनून मंजिल का काफी है दीवानों को
कदम जमीन पर और सिर आसमानों से ऊंचा है
दिखाना है अपना वजूद ज़माने को
चाल मिला रहा हूँ वक़्त से मैं आज-कल
अपने जीवन से हर दुःख तकलीफ मिटाने को।
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धन्यवाद।
4 comments
So deep ?????
Thanks Numesh Bhatt Ji..
आपने जो लिखा व दर्शाया उसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद ऎसे ही लिखते रहें… कभी सास के प्रति बहु का कर्तव्य व बहु के प्रति सास का फ़र्ज जैसी प्रेरक कविता या लघु कथा अवश्य लिखें अच्छा लगेगा…
अवश्य Chandrakant Dubey जी, हम प्रयास करेंगे की ऐसी कोई रचना पाठकों के लिए लेकर आयें। इसी तरह अपने विचार हम तक पहुंचाते रहें। धन्यवाद।