सोशल डिस्टेंसिंग
सूचना: दूसरे ब्लॉगर, Youtube चैनल और फेसबुक पेज वाले, कृपया बिना अनुमति हमारी रचनाएँ चोरी ना करे। हम कॉपीराइट क्लेम कर सकते है
पिछले कुछ महीने में एक शब्द जिसे हर कोई सीख गया है। वो है सोशल डिस्टेंसिंग। जिसका शाब्दिक मतलब है सामाजिक दूरी। कोरोना से बचने के लिए ये सोशल डिस्टेंसिंग जरुरी है ऐसा भारी भरकम प्रचार किया गया है। और सिर्फ प्रचार ही नही, जबरन मनवाया भी जा रहा है।
इसमें कहा जाता है की आपको किसी दुसरे व्यक्ति के नजदीक नहीं जाना है। उसके छुए हुए किसी चीज से बचना है। हाथ में ग्लोब्स और चेहरे में मुखौटा लगा के रखना है। और जहाँ तक हो सके घर से निकलना नहीं है।
रोज कहीं न कहीं से ये खबर आती है की इस जगह पे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नही हो रहा, इस काम में नही हो रहा उस काम में नहीं हो रहा। इन कामों में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं होगा इसलिए इन सबको बैन कर देते है। सरकार नियम बना के सोशल डिस्टेंसिंग का जबरदस्त या जबरदस्ती भी पालन करवाती है।
आखिर लोगो के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना क्यों मुश्किल है? कोरोना से भी डर नही लगता?
वैसे कोरोना वायरस तो कभी जाने वाला है नही तो क्या लोगो को अब हमेशा के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना होगा? क्या ये संभव है? मनुष्यों का सोशल डिस्टेंसिंग के साथ जीना?
Social Distancing को अपनाना क्यों मुश्किल है?
अगर मै अपना पर्सनल राय बताऊ तो ये पॉसिबल नही है? क्यों? इसके 2 प्रमुख कारण है?
1. फिजिकल,
2. नेचुरल
1. फिजिकल:
आप सबको पता ही होगा की पृथ्वी जिसमे हम रहते है, उसका आकार सिमित है। और हम इंसानों की जनसँख्या दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है। बात हमारे देश भारत की करे तो इसका टोटल एरिया 3287263 वर्ग किमी है।
जिसमे से 21.67% भाग जंगलो से ढंका है और 48.37% भाग खेती के लिए उपयोग होती है। और ये दोनों चीजे कम नहीं किया जा सकता वरना कोरोना से भी विकट विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है।
अगर मैं पशुपालन, फैक्ट्री और ऐसे अलग-अलग कामो के लिए उपयोग हो रहे भाग और खदाने, पहाड़ियाँ, घाटियाँ जो इंसानों के रहने लायक नही है को गिनती में ना लू तो भी सिर्फ देश का आधा या उससे भी कम भाग है जो हमारे रहने के लिए उपलब्ध है। जिसमे अभी 135 करोड़ से ज्यादा लोग रह रहे है।
इंसानों की जनसँख्या इतनी ज्यादा हो चुकी है की इंच भर जमीन के लिए तो मार काट हो जा रहे है, और अगर इसी रफ़्तार से जनसँख्या बढ़ती रही तो अगले कुछ सालो में धरती भी कम पड़ने लगेगी इंसानों के रहने के लिए।
मैं कुछ प्रक्टिक्ल उदाहरण बताता हूँ।
आपने किसी स्कूल के क्लासरूम देखा है? एक क्लास में 30-40-50 और इससे भी ज्यादा बच्चे बैठते है। 2 लोगो के बैठने लायक बेंच में 4 लोग बैठते है। अगर इन लोगो का सोशल डिस्टेंसिंग करवाया जाये तो एक क्लास में जितने बच्चे होते है उनके लिए 4 क्लास रूम चाहिए होगा।
स्कूल बस, वैन या रिक्शा की हालत देखीं है? 10 बच्चे की जगह में 15-20 बच्चे को लटका के ले जाया जाता है। अगर उसमे सोशल डिस्टेंसिंग लगा दिया जाये तो? एक रिक्शा में एक ही बच्चा स्कूल जायेगा। 20 बच्चे के लिए, 20 रिक्शा चाहिए।
आपने रेलवे स्टेशन की हालत देखीं है? मुंबई लोकल के बारे में तो पता ही होगा। अगर मुंबई लोकल में सोशल डिस्टेंसिंग लगा दिया जाये तो? शराब दुकानों में क्या हाल होता है उसे आप जानते ही है। फिजिकली और इकोनोमिकली दोनों ही सूरत में सोशल डिस्टेंसिंग बहुत मुस्किल है।
2. नेचुरल :
इस दुनिया में हर प्राणी का एक निश्चित स्वाभाव होता है। उस स्वभाव को बदलना लगभग असंभव होता है। और उस स्वाभाव को बदलने के चक्कर में उस प्राणी का अस्तित्व भी मिट सकता है या फिर वो दूसरी तरह का प्राणी बन सकता है।
जैसे चींटी का स्वाभाव होता है हर वक़्त कुछ न कुछ करते रहना। आप उसे चुपचाप बैठ के आराम करने के लिए मजबूर नही कर सकते। क्योंकि उसका स्वाभाव ही कुछ करना है। मधुमक्खी का स्वाभाव है फूलों से रस निकालकर शहद के रूप में इकठ्ठा करना आप उसे बना बनाया शहद नहीं दे सकते। शेर का स्वाभाव होता है मांस खाना आप उसे फल और ताजे सब्जियाँ नहीं खिला सकते।
वैसे ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। socialize होना इनका स्वाभाव है। इसी के बदौलत इन्सान इन्सान है। इंसानों के बहुत से कार्य ऐसे है जिनमे सोशल होना ही होता है। अगर आदिमानव लोग झुण्ड बना के रहने के बजाय जंगल में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते तो इन्सान आज भी जंगलो में ही रह रहा होता।
इसके अलावा अगर लोगो को सोशल होने से रोका जायेगा तो उनपर प्रतिकुल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकते है। मानसिक तनाव, दुराग्रह, अवसाद, तनाव, बोरियत जैसे मानसिक रोगों से घिर सकते है।
हम सब ये बात जानते है की एक सुखी और सफल जीवन के लिए दुसरो का परस्पर सहयोग और साथ की जरुरत पड़ती है। ऐसे में हम एक दुसरे का हाथ थामने के बजाय हाथ छुड़ाने लगे और दूर जाने लगे तो ये हमारे लिए मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और विकास के राह में भी हतोत्साहित करने वाला काम होगा।
ये तो दो सबसे बेसिक कारन है जिनके कारन सोशल डिस्टेंसिंग को पूरी तरह अपनाना मुश्किल होगा। इसलिए इसे अपनाने के लिए नियम बनाना या लोगो पर दबाव बनाना मेरे नजरिये से तो सही नहीं है।