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आपने एक कहावत तो सुनी ही होगी: ” जैसा देश वैसा भेष “। आज जानते है की इसका कितना महत्त्व है। और देश विदेश घुमते समय ये कितना जरुरी हो जाता है।
हम दुनिया में अलग-अलग जगहों पर घूमते हैं और इस प्रक्रिया में हमें कई अनुभव होते हैं। कहीं हमारा आदर सत्कार होता है तो कहीं हमें हीन भावना से देखा जाता है। कहीं हमारी इज्जत में चार चाँद लगते हैं तो कहीं हमारे चाल चलन की वजह से हमें बेइज्जत होना पड़ता है। साधारण मनुष्य ही नहीं कभी-कभी महापुरुषों को भी ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ता है। लेकिन हमें कैसे इन सब चीजों से बचना चाहिए इसके बारे में हम किताब कर्म योग के इस अंश से स्वामी विवेकानन्द जी के विचार पढ़ते हैं :-
जैसा देश वैसा भेष क्यों जरुरी?
अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनाने वाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है। परन्तु वह विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि सभी देश और समाज में एक ही प्रकार के आदर्श और कर्तव्य प्रचलित नहीं है। इस विषय में हमारी अज्ञता ही एक जाति की दूसरी के प्रति घृणा का मुख्य कारण है।
एक अमेरिका निवासी समझता है कि उसके देश की प्रथाएँ ही सर्वोत्कृष्ट है, अतएव जो कोई उसकी प्रथाओं के अनुसार बर्ताव नहीं करता, वह दुष्ट है। इस प्रकार एक हिन्दू सोचता है कि उसी के रस्म-रिवाज संसार भर में ठीक और सर्वोत्तम है, और जो उनका पालन नहीं करता, वह महा दुष्ट है। हम सहज ही इस भ्रम में पड़ जाते हैं, और ऐसा होना बहुत स्वाभाविक भी है। परन्तु यह बहुत अहितकर है; संसार में परस्पर के प्रति सहानुभूति के अभाव एवं पारस्परिक घृणा का यह प्रधान कारण है।
स्वामी विवेकानन्द जी आगे कहते है, मुझे स्मरण है, जब मैं इस देश में आया और जब मैं शिकागो प्रदर्शनी में से जा रहा था, तो किसी आदमी ने पीछे से मेरा साफा खींच लिया। मैंने पीछे घूमकर देखा, तो अच्छे कपड़े पहने हुए एक सज्जन दिखाई पड़े। मैंने उनसे बातचीत की और जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मैं अँग्रेजी भी जानता हूँ तो वे बहुत शर्मिन्दा हुए।
इसी प्रकार, उसी सम्मेलन में एक-दूसरे अवसर पर एक मनुष्य ने मुझे धक्का दे दिया; पीछे घूमकर जब मैंने उससे कारण पूछा, तो वह भी बहुत लज्जित हुआ और हकला-हकलाकर मुझसे माफी माँगते हुए कहने लगा, “आप ऐसी पोशाक क्यों पहनते हैं?” इन लोगों की सहानुभूति बस अपनी ही भाषा और वेशभूषा तक सीमित थी।
शक्तिशाली जातियाँ कमजोर जातियों पर जो अत्याचार करती हैं, उसका अधिकांश इसी दुर्भावना के कारण होता है। मानव मात्र के प्रति मानव का जो बन्धु-भाव रहता है, उसको यह सोख लेता है। सम्भव है, वह मनुष्य जिसने मेरी पोशाक के बारे में पूछा था तथा जो मेरे साथ मेरी पोशाक कारण ही दुर्व्यवहार करना चाहता था, एक भला आदमी रहा हो, एक सन्तान वत्सल पिता और एक सभ्य नागरिक रहा हो; परन्तु उसकी स्वाभाविक सहृदयता का अन्त बस उसी समय हो गया, जब उसने मुझ जैसे एक व्यक्ति को दूसरे वेश में देखा।
सभी देशों में विदेशियों को अनेक अत्याचार सहने पड़ते हैं, क्योंकि वे यह नहीं जानते कि परदेश में अपने को कैसे बचायें। और इस प्रकार वे उन देशवासियों के प्रति अपने देश में भूल धारणाएँ साथ ले जाते हैं। मल्लाह, सिपाही और व्यापारी दूसरे देशों में ऐसे अद्भुत व्यवहार किया करते हैं, जैसा अपने देश में करना वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकेंगे। शायद यही कारण है कि चीनी लोग यूरोप और अमेरिका निवासियों को ‘विदेशी भूत’ कहा करते हैं। पर यदि उन्हें पश्चिमी देश की सज्जनता तथा उसकी नम्रता का भी अनुभव हुआ होता, तो वे शायद ऐसा न कहते।
अतएव हमें जो एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए, वह यह है कि हम दूसरे के कर्तव्यों को उसी की दृष्टि से देखें, दूसरों के रीति-रिवाजों को अपने रीति-रिवाज के माप दण्ड से न जाँचे। यह हमें विशेष रूप से जान लेना चाहिए कि हमारी धारणा के अनुसार सारा संसार नहीं चल सकता, हमें ही सारे संसार के साथ मिल-जुलकर चलना होगा, सारा संसार कभी भी हमारे भाव के अनुकूल नहीं चल सकता।
प्रस्तुत प्रसंग स्वामी विवेकानन्द जी के विचारो का संग्रह ‘कर्मयोग‘ का एक अंश है। आप स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे ही अनमोल विचार उनके किताब कर्मयोग में पढ़ सकते है।
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