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फ़ादर फॉरगेट्स :- इन्सान के जिंदगी में रिश्तों का बड़ा ही महत्त्व होता है। रिश्तों से ही उनकी दुनिया बनती है। ऐसा ही एक रिश्ता होता है पिता पुत्र का रिश्ता। हर माता-पिता अपने बच्चो को एक अच्छी और खुशहाल जिंदगी देना चाहते है।
लेकिन दुःख की बात ये है की वो ये जानने की कोशिश भी नही करते की उनके बच्चे की ख़ुशी किसमे है। अधिकतर माता-पिता ये जाने बिना ही अपने बच्चो से बड़ी-बड़ी और “अपने पसंद” की उम्मीदे लगा बैठते है। मानो जैसे उन्होंने अपने बच्चों को “अपने सपनों” को पूरा करने के लिए जन्म दिए हों। फिर जब बच्चे जरा भी उनके उम्मीदों से चुकने लगे तो फिर शुरू होती है बच्चो की आलोचना और दबाव। जो की माता-पिता और संतान के बीच रिश्ते में कड़वाहट ला देती है।
अगर आप भी ऐसे माता-पिता में से एक है। तो अमेरिकी पत्रकारिता के एक क्लासिक लेख ” फ़ादर फॉरगेट्स ” को एक बार जरुर पढ़े। लेखक डब्ल्यू. लिविंगस्टन लारनेड द्वारा लिखा गया फ़ादर फॉरगेट्स उन छोटे लेखो में से एक है – जो गहन अनुभूति के किसी क्षण में लिखे जाते हैं। जो पाठकों के दिल को छु जाते है।
फ़ादर फॉरगेट्स ( हर पिता यह याद रखे )
डब्ल्यू. लिविंगस्टन लारनेड
सुनो बेटे! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है। और और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुँघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाख़िल हुआ हूँ, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मै लाइब्रेरी में अख़बार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूँ. किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रह था, वो य हैं, बेटे। मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हे खूब डांटा… तुमने टॉवेल के बजाय पर्दे से हाँथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे, इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा था। तुमने फ़र्श पर इधर-उधर चीज़ें फेंक रखी थीं… इस पर मैंने तुम्हे भला-बुरा कहा।
नाश्ता करते वक़्त भी मैं तुम्हारी एक के बाद एक गलतियाँ निकालता रहा। तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था। खाते समय तुम्हारे मुँह से चपड़-चपड़ की आवाज आ रही थी। मेज पर तुमने कोहनियाँ भी टिका रखी थीं। तुमने ब्रेड पर बहुत सारा मक्खन भी चुपड़ लिया था।यहीं नही जब मैं ऑफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर “बाय-बाय, डैडी” कहा था, तब भी मैंने भृकुटी तानकर टोका था, “अपनी कॉलर ठीक करो।”
शाम को भी मैंने यही सब किया। ऑफिस से लौट कर मैंने देखा की तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारे कपड़े गंदे थे, तुम्हारे मोजों में छेड़ हो गये थे। मैं तुम्हे पकड़ के ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया। मोज़े महंगे हैं- जब तुम्हें ख़रीदने पड़ेंगे तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी। ज़रा सोचो तो सही, एक पिता अपने बेटे का इससे ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है?
क्या तुम्हे याद है जब मैं लाइब्रेरी में पढ़ रहा था तब तुम रात को मेरे कमरे में आये थे, किसी सहमे हुए मृगछौने की तरह। तुम्हारी आँखें बता रही थीं की तुम्हे कितनी चोट पहुंची है। और मैंने अख़बार के ऊपर से देखते हुए पढ़ने में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था, “कभी तो चैन से रहने दिया करो। अब क्या बात है?” और तुम दरवाजे पर ही ठिठक गए थे।
तुमने कुछ नही कहा था, बस भागकर मेरे गले में अपनी बाँहें डालकर मुझे चूमा था और “गुडनाईट” कहकर चले गये थे। तुम्हारी नन्ही बांहों की जकड़न बता रही थी की तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया है जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नही मुरझाया। और फिर तुम सीढ़ियों पर खट-खट करके चढ़ गए।
तो बेटे, इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अख़बार छूट गया आयर मुझे ग्लानी हुई। यह क्या होता जा रहा है मुझे? गलतियाँ ढूंढने की, डाँटने-डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे। ऐसा नहीं है, बेटे, की मैं तुम्हें प्यार नही करता, पर मैं एक बच्चे से जरुरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था। मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था।
तुम इतने प्यारे हो, इतने अच्छे और सच्चे। तुम्हारा नन्हा सा दिल इतना बड़ा है जैसे चौड़ी पहाड़ियों के पीछे से उगती सुबह। तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से नजर आता है की दिन भर डाँटते रहने वाले पापा को भी तुम रात को “गुडनाईट किस” देने आये। आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, बेटे। मैं अँधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूँ और मैं यहाँ पर घुटने टिकाए बैठा हूँ, शर्मिंदा।
यह एक कमजोर पश्चाताप है। मैं जनता हूँ की अगर मैं तुम्हे जगाकर यह सब कहूँगा, तो शायद तुम नही समझ पाओगे। पर मैं कल से सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूँगा, तुम्हारी मजेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा, तुम्हारे साथ खुलकर हँसूंगा और तुम्हारी तकलीफों को बाटूंगा। आगे से मैं जब भी तुम्हे डाटने के लिए मुँह खोलूँगा, तो इसके पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूँगा। मैं बार-बार किसी मन्त्र की तरह यह कहना सीखूंगा, “वह तो अभी बच्चा है… छोटा सा बच्चा!”
मुझे अफ़सोस है की मैंने तुम्हे बच्चा नहीं, बड़ा मान लिया था। परन्तु आज जब मैं तुम्हे गुड़ी-मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूँ, बेटे, तो मुझे एहसास होता है की तुम अभी बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी माँ की बांहों में थे, उसके कंधे पर सर रखे। मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थीं, कितनी ज्यादा!
फ़ादर फॉरगेट्स लेख आप डेल कार्नेगी के बेस्ट सेलिंग किताब “लोक व्यवहार: प्रभावशाली व्यक्तित्व की कला” में भी पढ़ सकते है।
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1 comment
nice post….