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पर्यावरण प्रदूषण और हमारी यज्ञ पद्धति :- यज्ञ का महत्त्व बताता एक महत्वपूर्ण लेख

by ApratimGroup
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बदलते जमाने के साथ हम अपनी संस्कृति को भी भूलते जा रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए कितने अविष्कार किये हैं और कितने ही ऐसे ढंग दिए हैं जिनके जरिये हम अपनी धरती और अपने पर्यावरण को स्वस्थ और स्वच्छ रख सकते हैं। तो आइये ऐसे ही एक ढंग के बारे में पढ़ते हैं ‘ पर्यावरण प्रदूषण और हमारी यज्ञ पद्धति ‘ लेख में। जो हमें पर्यावरण प्रदूषण से निजात दिलाता है।

पर्यावरण प्रदूषण और हमारी यज्ञ पद्धति

पर्यावरण प्रदूषण और हमारी यज्ञ पद्धति

जर्मन फिलॉस्फर नीत्शे ने कहा था कि इस पृथ्वी की भी हमारे  शरीर की तरह ही चमड़ी है। जो रोगी है एवं इसके रोग का कारण मनुष्य है। सच में अगर आज नीत्शे जिन्दा होता तो उसे आज इस धरा की हालत को परिभाषित करने के लिए शब्द ही न मिलते। मनुष्य की इसी हालत को बयान करते हुए कहा है –

रौं में है रक्शउम्र , कहाँ देखिये थमे ,

हाथ लगाम पे हैं, पाँव हैं रकाब में।

आज तथाकथित तरक्की के घोड़े पर सवार होकर बेतहाशा दौड़ रहे मनुष्य के पैर में न रकाब है और न ही हाथ में लगाम है। मनुष्य को इस दौड़ते हुए घोड़े के बारे में अंदाजा ही नहीं है कि यह कहाँ जाकर रुकेगा। सच में आज मानव के प्रकृति के साथ भी कुछ ऐसे ही सम्बन्ध हो चुके हैं। वह जिस घोड़े पर सवार है उसी की लगाम उसके हाथ में न होने के कारण उसे घोड़े को काबू में करना भी नहीं आ रहा। आज मानव के हाथ में टेक्नोलॉजी क्या आयी कि यह जो भी सामने आया उसी को हड़पने लगा। ऐसा कहना अतिकथनी नहीं होगा कि आज मानव की स्थिति शेक्सपियर द्वारा रचित हेमलेट जैसी हो चुकी है। जिसे  जिन्दा रहने के लिए भी सोचना पड़ रहा है।

आज तेजी से हो रही तरक्की ने न तो साफ़ जल रहने दिया और न ही साफ हवा। वन कम हो रहे हैं वनों पर निर्भर जीव जंतु मनुष्य की बेरहमी का शिकार हो रहे हैं। वनों की निरन्तर कटाई से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। यहाँ बारिश नहीं होती थी वहां बाढ़ आ रही है। और यहाँ बारिश रुकने का नाम नहीं लेती थी वहां अब कभी -कभी दर्शन देती है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई  के कारन पृथ्वी गर्म हो रही है। उद्योगिक निकासी के कोई नियम न होने के कारन आज ३००० से ज्यादा तरह के जहर वायु में मिल रहें हैं। यही नहीं इन उद्योगों के कारन 50,00,000 से भी ज्यादा तरह के रसायन जल को दूषित कर रहें हैं। जल प्रदूषण  की बात यहीं  समाप्त नहीं होती 15 टन से भी ज्यादा तेल हर साल सागरों में घुल जाता है। गर्म हो रही पृथ्वी के कारन ग्लेशियर पिघल रहे हैं, ओजोन परत  फट रही है।



हवा में घुली रासायनिक गैसें बारिश को तेजाबी बना रही हैं। यह तेजाबी गैसें मुख्य तौर पर कारखानों के धुएं एवं पुआल को लगायी गयी आग से पैदा होती हैं। जो कि मानवी बर्बरता  का सब से दुखद उदाहरण है। मार्क ट्वेन ने मानव की इसी लालची प्रवृति को बताते हुए कहा था कि – मानव जिन हाथों  से एक श्वान को खिलाता है वो कभी भी उन हाथों को नहीं काटता। आज मानव श्वान से भी नीच हो गया है। वह जिस डाल  पर बैठा है उसी को ही काट रहा है। जिस दिन उस कटी डाल के साथ खुद भी नीचे गिरेगा उसी दिन शायद इसे अपनी भूल का आभास होगा।

बड़ी दुखद बात है कि जिस कुदरत ने मानवी जीवन को इस धरा पर संभव बनाया आज मनुष्य उसी का ही तिरस्कार कर रहा है। कुदरत का विनाश करने के लिए इसने जो विधियां अपनायी उसे ही यह प्रगति का ख़िताब दे रहा है। सच तो यह है कि मनुष्य आज प्रकृति की लय ताल से विलग हो कर अपनी ही तान अलाप रहा है। जो इस माँ प्रकृति को कदाचित भी स्वीकार्य नहीं। जो प्रकृति के नियमों का सम्मान करता है तो यह भी उसका सत्कार करती है। लेकिन जो इसका उल्लंघन करता है उसका यह भी राम नाम सत्य कर देती है। जिसके बारे में किसी अदीब ने बहुत सुन्दर  कहा है –

दोनों जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के,

वो जा रहा है कोई शबए-ग़म  गुज़ार  के।

हमने अपने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि एक बार एक गांव में बाढ़ आ गयी और तरह-तरह की चीज़ें उस बाढ़ में बह कर आने लगी। उस गांव के लोग नदी में छलांगे लगा लगाकर अपने काम की वस्तुएं ढूंढ रहे थे। कुछ लोगों को नदी के अंदर एक काली वस्तु आती दिखाई दी। एक व्यक्ति ने सोचा जरूर ही वह काला मोटा कंबल है। कुछ दिनों बाद सर्दी शुरू हो जाएगी क्यों न मैं इस कंबल को जल्दी से जल्दी नदी से निकाल लूँ। इसलिए उस व्यक्ति ने नदी में छलांग लगा दी एवं उस कंबल को पकड़ लिया जो वास्तव में एक काला भालू था। अब तक पानी का बहाव भी काफी बढ़ चुका था वो व्यक्ति पानी में गोते खाने लगा। नदी में छटपटाने लगा तो नदी के तट पर खड़े लोगों ने आवाज़ दी कि,”कंबल छोड़ और बहार आ।“

तो वो कहने लगा,”मैं तोह इससे छोड़ना चाहता हूँ लेकिन यह कंबल ही मुझे नहीं छोड़ रहा।“ जैसे वह व्यक्ति गया तो कंबल पकड़ने गया था लेकिन खुद ही भालू का ग्रास बन गया। आज हमें भी समझना होगा कि मानव इस प्रकृति से अलग नहीं बल्कि इसी का ही अभिन्न अंग है। हमारे पास सिर्फ एक ही धरती है जिससे हमारा  सम्पूर्ण अस्तित्व बंधा हुआ है। इसलिए हम अपने ही जीवन से खिलवाड़ न करें और इस धरा को साफ़-स्वच्छ रखने का संकल्प लें।



अब प्रश्न पैदा होता है कि वह कौन सा शाश्वत नियम है जो इस धरा को प्रदूषण मुक्त बना सकता है। तो यह जानने के लिए हमे अपने वैदिक कालीन ऋषियों के आश्रम की और रुख करना पड़ेगा। क्योंकि वहां हमें प्रकृति के साथ उनके सामंजस्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्राप्त होगा। हम जानते हैं के हमारे पुरातन ऋषि मुनि अपने आश्रम में यज्ञ किया करते थे। तो सज्जनों वास्तव में वो अपनी इस क्रिया द्वारा प्रकृति को प्रदूषण मुक्त बनाते थे। आज के वैज्ञानिक भी इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि यज्ञ वातावरण संतुलन को कायम रखता है। इसके द्वारा हमें निरोगी प्राणवायु की प्राप्ति होती है।

जिस समय यज्ञ किया जाता है तो यज्ञ कुंड से एथिलीन ऑक्साइड, प्रोपलीन, एसिटिलीन  ( Ethylene Oxide, Propylene, Actylene ) जैसी गैसें  निकलती हैं। जो वातावरण को शुद्ध कर प्रदूषण  को दूर भगा देती हैं। यज्ञ के प्रभाव को देखने के लिए न्यू  जर्सी (अमेरिका ) में अग्निहोत्र नामक एक ऐसी संस्था है जो अमेरिका में प्रदूषण निवारण के लिए अग्निहोत्र का बड़े पैमाने पर प्रयोग एवं प्रचार कर रही। हम भी इस बात को जानते हैं कि यज्ञ कुण्ड के चारों ओर जल का सिंचन्न किया जाता है। इसके द्वारा फॉर्मेल्डिहाइड ( Formaldihyde ) गैस पैदा होती है। यज्ञ के धुएं कारण कुछ अंश तक  CO2 भी फॉर्मेल्डिहाइड (Formaldihyde ) में तब्दील हो जाती है। फॉर्मेल्डिहाइड  ( Formaldihyde ) में जबरदस्त कीटाणु नाशक प्रभाव होता है। इस प्रकार यज्ञ प्रदूषण को नष्ट करने का एक वैज्ञानिक ढंग है।

इसका ज्वलंत उदाहरण हमें भोपाल गैस काण्ड में भी देखने को मिलता है। हम जानते हैं कि  इस गैस कांड के कारण अनेकों  ही लोग काल के मुख में समा गए। जो जिन्दा बचे वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए निरन्तर लड़ रहे थे। और जो बच गए वह जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए। लेकिन इस भयंकर  त्रासदी में भी श्री सोहन लाल खुश्वाहा एवं एम. एल राठौर परिवार सहित सकुशल रहे। इन दोनों परिवारों में से कोई भी व्यक्ति अस्पताल नहीं गया।  जब कि  इनका घर हादसे वाली जगह से मात्र एक मील की दूरी पर स्थित था।

The tragic incident occurred on the night of December 3, 1984 when the poisonous MIC gas leaked from Union Carbide factory at Bhopal. Hundreds of people died and thousands were hospitalized but there were two families – those of Shri Sohan Lal S Khushwaha and Shri M.L. Rathore, living about one mile away from the plant who came out unscathed. These families were regularly performing agnihotra (havan). In these families nobody died, nobody was even hospitalized despite being present in the area worst affected by the leakage of the toxic gas. This observation implies that agnihotra is a proven antidote to pollution. (English Daily-“The Hindu’ of 4-5-85; news item under the heading ‘Vedic Way to Beat Pollution’.)

तो क्या आप जानते हैं कि इन दोनों परिवारों का इस भयानक त्रासदी से बचने का कारण क्या था ? जी हाँ यह दोनों परिवार अपने घर में हर रोज यज्ञ किया करते थे। यही कारण था कि मिथाइलआइसोसाइनाइट गैस ( MIC gas ) की भयावहता से यह परिवार बिलकुल सकुशल बच गया। आज भी बड़े बड़े वैज्ञानिक हैरान हैं और इस यज्ञ पद्धति  पर अनेकों अनुसंधान  कर रहे हैं। और इसी निष्कर्ष पर पहुंचे  हैं कि अगर आज पल पल विषाक्त हो रहे वातावरण को कोई बचा (antidote to pollution) सकता हैं तो वो सिर्फ भारतीय ऋषि कालीन यज्ञ पद्धति  ही है।

न्यू जर्सी (अमेरिका ) में भी अग्निहोत्र नामक एक ऐसी संस्था है जो अमेरिका में प्रदूषण निवारण के लिए अग्निहोत्र का बड़े पैमाने पर प्रयोग एवं प्रचार कर रही है। हम भारत वासी इन महान ऋषि मुनियों की संतानें हैं। तो आएं अपनी प्राचीन पद्धति से पुनः जुड़े नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे शहर हिटलर के गैस चैम्बरों में तब्दील हो जायेंगे जहाँ ठण्डी हवा नहीं सड़ांध मारती सम्पूर्ण मानवता अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कराह रही होगी लेकिन तब तक बहुत देर हो जाएगी। इसलिए अपने वैदिक ऋषिओं को याद करते हुए संकल्प ले कि अंतरिक्ष मा हिंसी भाव आकाश को प्रदूषित न करें। पृथ्विया सम्भवः पृथिवी से सहयोग करते रहें तभी यह प्रकृति भी हमसे सहयोग करते हुए हमें तंदरुस्त जीवन प्रदान करेगी।



पर्यावरण प्रदूषण और हमारी यज्ञ पद्धति लेख के बारे में अपने बहुमूल्य विचार हम तक अवश्य पहुंचाएं।

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धन्यवाद।

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