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नव वर्ष पर लेख :- हमारी संस्कृति हमारा नववर्ष।
पेड़ अपनी जड़ों को खुद नहीं काटता, पतंग अपनी डोर को खुद नहीं काटती, लेकिन मनुष्य आज आधुनिकता की दौड़ में अपनी जड़ें और अपनी डोर दोनों काटता जा रहा है। आज पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते हुए जाने अनजाने हम अपनी संस्कृति की जड़ों और परम्पराओं की डोर को काट कर किस दिशा में जा रहे हैं?
ये प्रश्न आज कितना प्रासंगिक लग रहा है जब हमारे समाज में महज तारीख़ बदलने की एक प्रक्रिया को नववर्ष के रूप में मनाने की होड़ लगी हो। जब हमारे संस्कृति में हर शुभ कार्य का आरम्भ मन्दिर या फिर घर में ही ईश्वर की उपासना एवं माता पिता के आशीर्वाद से करने का संस्कार हो, उस समाज में कथित नववर्ष माता पिता को घर में छोड़, मांस व शराब के नशे में डूब कर मनाने की परम्परा चल निकली हो।
नव वर्ष पर लेख
भारत में ऋतु परिवर्तन के साथ ही भारतीय नववर्ष प्रारंभ होता है. चैत्र माह में शीत ऋतु को विदा करते हुए और वसंत ऋतु के सुहावने मौसम के साथ नववर्ष आता है. पौराणिक मान्यतानुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही सृष्टि की रचना हुई थी। इसीलिए हिन्दू-समाज भारतीय नववर्ष का पहला दिन अत्यंत हर्षोल्लास से मनाते हैं।
इस वर्ष का स्वागत सिर्फ मनुष्य ही नहीं पूरी प्रकृति करती है, बसंत ऋतु का समय होता है जिस समय पौधे पर विभिन्न प्रकार व रंगो के फूल बिखरे होते हैं। पूरा खेत सरसों के फूलों से ढका हुआ रहता है, सुबह-सुबह कोयल की आवाज सुनाई देती है, पूरी धरती दुल्हन की तरह सजी रहती है मानो नवरात्रि में माँ के धरती पर आगमन की प्रतीक्षा कर रही हो। नववर्ष का आरंभ माँ के आशीर्वाद के साथ होता है। नववर्ष के नए सफर की शुरूआत के इस पर्व को मनाने और आशीर्वाद देने स्वयं माँ पूरे नौ दिन तक धरती पर आती हैं।
लेकिन इस सबको अनदेखा करके जब हमारा समाज 31 दिसंबर की रात मांस और मदिरा के साथ जश्न में डूबता है और 1 जनवरी को नववर्ष समझने की भूल करता है तो आश्चर्य भी और दुख भी होता है। अगर हम हिन्दू पंचांग के नववर्ष की बजाय पश्चिमी सभ्यता के नववर्ष को स्वीकार करते हैं तो फिर वर्ष के बाकी दिन हम पंचांग क्यों देखते हैं?
उत्तर तो स्वयं हमें ही तलाशना होगा। क्योंकि बात अंग्रेजी नववर्ष के विरोध या समर्थन की नहीं है, बात है प्रमाणिकता की। हिन्दू संस्कृति में हर त्यौहारों की संस्कृति है, लेकिन जब पश्चिमी संस्कृति की बात आती है तो वहाँ नववर्ष का कोई इतिहासिक या वैज्ञानिक आधार नहीं है।
अपने देश के प्रति, उसकी संस्कृति के प्रति और आने वाले पीढ़ियों के प्रति हम सभी के कुछ कर्तव्य हैं। आखिर एक व्यक्ति के रूप में हम समाज को और माता पिता के रूप में अपने बच्चों के सामने अपने आचरण से एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। समय आ गया है कि अंग्रेजी नववर्ष की अवैज्ञानिकता और भारतीय नववर्ष की संस्कृति को न केवल समझें बल्कि अपने जीवन में अपना कर अपनी भावी पीढ़ियों को भी इसे अपनाने के लिए प्रेरित करें।
रचनाकार आदरणीय अंकित पाण्डेय जी काटरगंज जीरवाबाड़ी साहिबगंज, झारखंड से हैं। रचनाकार सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में भी कार्यरत हैं।
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