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सेवादार बना सरकार – हिंदी व्यंग्य । Hindi Satire – Sewadar Bana Sarkar

by Sandeep Kumar Singh
4 minutes read

सेवादार बना सरकार – हिंदी व्यंग्य

सेवादार बना सरकार - हिंदी व्यंग्य

ये कहानी हर उस आम आदमी की है जो इस देश का वासी है। आरंभ में ये एक ऐसी कहानी लग सकती है जो संभव न हो लेकिन जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाएँगे वैसे-वैसे आपको इस व्यंग्य सेवादार बना सरकार पर भरोसा होता चला जाएगा।

ये कहानी एक ऐसे नौकर कि है जो कब मालिक बन बैठा किसी को पता नहीं चला। अब स्थिति ऐसी है कि उस नौकर के किये काम हम पर एहसान हो रहे हैं। क्या कहा? आपने कोई नौकर रखा ही नहीं है। अरे भाई कौन से ज़माने में रहते हो? आपको पता भी नहीं और एक नौकर आपकी जेब खाली करता चला जा रहा है। आइये सुनाता हूँ आपको वो कहानी जिसने सब कुछ बदल दिया।

अपने बुजुर्गों से सुना था कि किसी ज़माने में हमारे घर में सबको बराबर के अधिकार थे। जो सबसे ज्यादा होशियार हुआ करता था उसे घर को चलाने का अधिकार दे दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे ये परंपरा बदल गयी और घर के बड़े बेटे को घर कि बागडोर थमा दी जाने लगी। घर बाहर अदि सुख शांति से चलता था। और अगर कोई मुश्किल भी होती तो बाहर किसी को पता नहीं चलता था। परिवार वालों को एक नौकर की जरुरत महसूस हुयी। उन्हें लगा कि घर में कोई ऐसा सदस्य होना चाहिए जो उनके वो काम ख़तम कर सके जिन्हें वो अपने व्यस्त दिनचर्या में नहीं कर पाते।

अब खोज शुरू हुयी नौकर की। नौकरों के लिए साक्षात्कार रखा गया। एक से एक नौकर आ रहे थे। सब अपनी-अपनी खूबी गिना रहे थे। कोई कह रहा था मै 8 घंटे काम करूँगा, कोई कह रहा था कि मैं 12 घंटे काम करूँगा। किसी ने बागबानी करने का प्रस्ताव भी रख दिया। इसी तरह सबने अलग-अलग ढंग से साक्षात्कार दिया।

अंत में फैसला ले लिया गया। घर वालों को जो सब से सही लगा उसी को काम पर रखा गया। जैसे ही उसे नौकरी मिली उसके रंग ढंग बदल गए। 8 घंटे तो क्या वो तो 6 घंटे भी मुश्किल से काम करता था। बाजार से कुछ लेते आते तो उसमे से कुछ पैसे अपनी जेब में डाल लेता था।

पहले तो घर वालों को इसकी खबर न हुयी। लेकिन बाहर वालों से पता लगता रहा। फिर एक दिन घर वालों ने उस नौकर कि निगरानी के लिए एक और नौकर रखा। लेकिन पहले वाले नौकर ने दूसरे वाले को लालच देकर अपनी ओर कर लिया। कोई रास्ता ना निकलता देख घर वालों ने पहले नौकर को घर से निकाल दिया। घर की हालत जो काफी बिगड़ चुकी थी। उम्मीद थी कि अब कुछ सुधर जाएगी। अब ये नया नौकर चाहता तो पुराने वाले कि सारी पोल खोल सकता था लेकिन वही तरीके तो वो खुद अपनाने वाला था।



इतना ही बस नहीं था ये तो एहसान भी जताने लगा था कि मैंने आपके लिए ये किया वो किया। और अगर बात चलती किसी और नौकर को रखने कि तो वो नौकर गर्मजोशी के साथ अपनी दलीलें पेश करता। घर में सब तंगी तो झेल रहे थे लेकिन न जाने क्यों नौकर से डरते रहते थे। उसके खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते थे। सब सोचते थे जैसा चल रहा है चलने दो नया नौकर रखेंगे तो वो भी यही सब करेगा। ये नौकर सुधर नहीं सकते।

अब इस घर का तो बेडा गर्क हो ही गया। लेकिन एक मिनट रुकिए मैं इस घर को बुरा नहीं कह सकता। अरे भाई रहना तो इसी घर में है न। हाँ घर के सदस्यों को गलत कहूँ तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

हो सकता है ये लेख पढ़ कर आपको कुछ समझ न आया हो। लेकिन समझने की कोशिश करिए ऐसा हो रहा है। जो सरकारें हमारी नौकर हैं। जिन्होंने हम,से वादे किये थे। जिन्हें हम अपनी जेबों से तनख्वाह देते हैं। वो हमारे ही पैसे से हमारे लिए ही चीजें बना कर, उन्हीं चीजों में से पैसे चुराकर हम पर ही एहसान जताती हैं। और हम ये सोच कर जी रहें हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता। तो एक बार फिर उओअर से पढना शुरू कीजिये जहाँ आपको ये लगा था कि ऐसा मुमकिन ही नहीं है या नौकर बदल कर समस्या का हल हो सकता है।

ये हिंदी व्यंग्य मेरे खुद के विचार से लिखा गया है। इसका सीधे या घुमा फिरा कर किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं एक बहुत ही साधारण व्यक्ति हूँ हो सकता है मेरी भाषा कुछ असाधारण रही हो। उसके लिए मैं माफ़ी चाहूँगा। अगर आपको इस लेख में जरा सी भी सच्चाई नजर आती है तो अपने विचार जरुर रखें।

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धन्यवाद।

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