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रश्मिरथी तृतीय सर्ग | Rashmirathi Krishna Ki Chetavani

by Sandeep Kumar Singh
17 minutes read

रश्मिरथी तृतीय सर्ग ( Rashmirathi Krishna Ki Chetavani )  “ रश्मिरथी ” महाभारत के पात्र कर्ण के जीवन और चरित्र पर रचा गया काव्य है। जिसमें उनके जीवन से लेकर मृत्यु तक की सभी घटनाएं सम्मिलित की गयी हैं। कर्ण के द्वारा कवि ने यह सन्देश हम तक पहुँचाने का प्रयास किया है कि मानव जीवन में किसी कुल या वंश में जन्म लेने से ही श्रेष्ठता नहींं आती। व्यक्ति उत्तम बनता है अपने गुणों और व्यव्हार से

रश्मिरथी तृतीय सर्ग

 

रश्मिरथी किसकी रचना है
Rashmirathi Kiski Rachna Hai

इस काव्य को ‘ राष्ट्रकवि ’ के नाम से प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ( Rashmirathi Written By Ramdhari Singh Dinkar ) द्वारा लिखा गया है। कर्म की महत्वता और नैतिकता का पाठ पढ़ाता यह काव्य ऐसे शब्दों से सुसज्जित है जिन्हें पढ़कर मन में उत्तम कर्म करने की प्रेरणा पैदा होती है। जीवन के कठिन समय में भी कैसे संयम बनाये रखना है, कर्ण के माध्यम से यह सन्देश जन-जन को दिया गया है।

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रश्मिरथी किसे कहा गया है

रश्मिरथी का अर्थ होता है एक ऐसा रथसवार (रथी ) जिसका रथ सूर्य की किरणों ( रश्मि ) का बना हो। इस काव्य में रश्मिरथी सुर्यपुत्र कर्ण को कहा गया है क्योंकि कर्ण का चरित्र सूर्य की किरणों की तरह पवित्र है। और उसकी महानता सूर्य की किरणों के भांति किसी से छिपी नहींं अपितु सबके सामने है।

रश्मिरथी के तृतीय सर्ग में उस समय का वर्णन किया गया है। जब पांडव अज्ञातवास पूरा कर वापस आ जाते हैं और भगवान श्री कृष्ण कौरवों और पांडवों में सुलह करवाने के लिए हस्तिनापुर जाते हैं। भगवान् श्री कृष्णा के कहने पर दुर्योधन पांडवों को पांच गाँव तो नहींं देता उल्टा सैनिकों से उन्हें ही बंदी बनाने को कहा। आगे क्या हुआ आइये पढ़ते हैं  और आनंद लेते हैं रश्मिरथी तृतीय सर्ग ” कृष्ण की चेतावनी ” ( Rashmirathi Krishna Ki Chetavani ) कविता में :-

रश्मिरथी तृतीय सर्ग भाग 1

हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,
वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,

नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहींं विचलित होते,
क्षण एक नहींं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।

बत्ती जो नहींं जलाता है
रोशनी नहींं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।

जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।

सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहींं,
आराम और रण एक नहींं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।

वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।

तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?

पढ़िए :- प्रेरणादायक कविता अँधियारा

रश्मिरथी तृतीय सर्ग भाग 2

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है?

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

“दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे।”

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-

“जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर,

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।

सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!

मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।

सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहींं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहींं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहींं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।”
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे ‘जय-जय!’

पढ़िए :- उत्साहवर्धक कविता | सत्य की विजय सदा असत्य की हार हो 

रश्मिरथी तृतीय सर्ग भाग 3

भगवान सभा को छोड़ चले,
करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
आ मिला चकित भरमाया सा

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर

रथ चला परस्पर बात चली,
शम-दम की टेढ़ी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, “हाय,
अब शेष नहीं कोई उपाय

हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है

“मैंने कितना कुछ कहा नहींं?
विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहींं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
कुछ नहींं समझने वाला है

चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल

“हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है,
मति गई मूढ़ की मारी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?

“सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
भीतर विधवाओं की पुकार

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे

“चिंता है, मैं क्या और करूं?
शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
हाँ एक बात यदि तू माने,

तो शान्ति नहींं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है

“पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
तुझसे जय का विश्वास उसे

तू संग न उसका छोड़ेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?

“क्या अघटनीय घटना कराल?
तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
कौरव के दल में रहता है,

शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर

“माँ का सनेह पाया न कभी,
सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर

निज बंधु मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को

“पर कौन दोष इसमें तेरा?
अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
है जहाँ पाँच भ्राता तेरे

बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे

“कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
तेरा अभिषेक करेंगे हम

आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे

“पद-त्राण भीम पहनायेगा,
धर्माधिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
सहदेव-नकुल अनुचर होंगे

भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी

“आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
असली स्वरूप में जानेंगे

खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी

“रण अनायास रुक जायेगा,
कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
कोई न कहीं दुःख में होगा

सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे

“कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
बस एक भीख मुझको दे दे

कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा “बड़ी यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है

दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

“मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल

धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?

“सेवती मास दस तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है

आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहींं

“हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन

वह नहींं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी

“पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के

दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया

“माँ का पय भी न पीया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौ मुझ पर तनी रही

कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

“मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
कह ‘शूद्र’ पुकारा जाता था

पत्थर की छाती फटी नहीं,
कुन्ती तब भी तो कटी नहींं

“मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा

छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी

“पा पाँच तनय फूली फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही

क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?

“क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर

नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुड़े को गले लगाती है?

“कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें

क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?

“सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
मेरा सुख या पांडव की जय?

यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?

“मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय

किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था

“उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
ताड़ना-ताप लेती थी हर?

राधा को छोड़ भजूँ किसको,
जननी है वही, तजूँ किसको?

“हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पड़ा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ?

किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?

“अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन

निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए

“कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन

वह नहींं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है

“राजा रंक से बना कर के,
यश, मान, मुकुट पहना कर के
बाँहों में मुझे उठा कर के,
सामने जगत के ला करके

करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने

“है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है

सुरपुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा

“सच है मेरी है आस उसे,
मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर

पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?

“रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है

तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा

रश्मिरथी तृतीय सर्ग भाग 3 ( शेष भाग )

“कुन्ती का मैं भी एक तनय,
जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा

फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला

“मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही

चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

“कोई भी कहीं न चूकेगा,
सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
मेरे होंगे मिट्टी समान

लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?

“जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते

मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को

“लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहींं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है

ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहींं स्वीकार मुझे

“धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?

इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश – सुयश क्या है?

“सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते

ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ’ खोते हैं

“विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर।
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है।

सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं

“कुल-गोत्र नहीं साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा।
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैंने हिम्मत से काम लिया

अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे खोजने आया है,

“लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,

हे कृष्ण! यही मति मेरी है,
तीसरी नहींं गति मेरी है।

“मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहींं कट जाता है।

“जिस नर की बाह गही मैंने,
जिस तरु की छाँह गहि मैंने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा,

जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,

“मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ।

उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ।

“सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर।

कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?

“सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा,

मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है।

“कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहींं आपने भी जाना?
मुझको न आज तक पहचाना?

जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ।

“धनराशि जोगना लक्ष्य नहींं,
साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहींं।
भुजबल से कर संसार विजय,
अगणित समृद्धियों का सन्चय,

दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को।

“वैभव विलास की चाह नहींं,
अपनी कोई परवाह नहींं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
दान की देव सरिता निर्मल,

करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा।

“तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,

पर, वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है।

“मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को,

जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं।

“प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।

बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में।

“होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण।

नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है।

“चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,

वह पुरुष नहीं कहला सकता,
विघ्नों को नहीं हिला सकता।

“उड़ते जो झंझावातों में,
पीते सो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,

वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

“मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज।
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किसी विधि उसे छोड़,

रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको।

“संग्राम सिंधु लहराता है,
सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,

चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं कि समर में डूब मरूं।

“अब देर नहीं कीजै केशव,
अवसेर नहीं कीजै केशव।
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें,

तांडवी तेज लहरायेगा,
संसार ज्योति कुछ पायेगा।

“हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
जैसे हो इसे छिपा रहिए,

वे इसे जान यदि पायेंगे,
सिंहासन को ठुकरायेंगे।

“साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
सारी संपत्ति मुझे देंगे।
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
दुर्योधन को दे जाऊँगा।

पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे।

“अच्छा अब चला प्रणाम आर्य !
हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य।
रण में ही अब दर्शन होगा,
शर से चरण-स्पर्शन होगा।

जय हो, दिनेश नभ में विहरें,
भूतल में दिव्य प्रकाश भरें।”

रथ से राधेय उतार आया,
हरि के मन में विस्मय छाया,
बोले कि “वीर! शत बार धन्य,
तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य।

तू कुरूपति का ही नहीं प्राण,
नरता का है भूषण महान।”

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आशा करते हैं आपको रश्मिरथी तृतीय सर्ग ” कृष्ण की चेतावनी ” ( Rashmirathi Krishna Ki Chetavani ) कविता ने आपके अन्दर भी उत्साह का संचार किया होगा। इस कविता के बारे में अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।

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