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महानगर के घर कविता | Mahanagar Ke Ghar Kavita

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‘ महानगर के घर कविता ‘ में बड़े-बड़े शहरों में आवासीय समस्या के कारण छोटे – छोटे घरों में रहने को विवश लोगों की जीवन शैली का वर्णन किया गया है। महानगरों में बहुमंजिला आवासीय काॅलोनियों के छोटे – छोटे फ्लैटों में रहने वाले ये लोग एक-दूसरे से कटे हुए रहते हैं। अपने पड़ोसियों तक से अनजान इन लोगों को बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं होता है। छोटे घरों में रहने वाले ये एकल परिवार, वर्तमान से असंतुष्ट रहते हुए भविष्य के सुन्दर सपने देखते हुए ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। 

महानगर के घर कविता

महानगर के घर कविता

महानगर के ये घर कैसे
मुर्गी के दड़बों के जैसे,
मनुज यहाँ कैदी – सा रहता
अपने सुख – दुःख खुद ही सहता।

यहाँ पड़ोसी भी अनजाना
नहीं किसी का पता ठिकाना,
एकल परिवारों की दुनिया
गुमसुम रहते मुन्ने मुनिया।

सुबह काम पर जल्दी जाता
शाम ढले थक वापस आता,
आते – जाते घर से दफ्तर
होता जीवन का खत्म सफर।

छोटे – से इस घर में सिमटा
जीवन की दुविधा में लिपटा,
नहीं किसी से अब वह मिलता
मुरझाया मन कभी न खिलता।

मिट्टी से अब कटकर रहता
धूल – धूप को तनिक न सहता,
ताका करता खिड़की से नभ
है मुक्त गगन अब कहाँ सुलभ।

कहीं नहीं दिखती हरियाली
हवा न छूती पूरब वाली,
ऋतुओं का कुछ पता न चलता
अनदेखा सूरज उग ढलता।

बहुमंजिल कंक्रीटों के घर
अँटता इनसे अब महानगर,
इनमें रहकर मानव का मन
पत्थर बन खोता संवेदन।

जीवन चलता यहाँ यंत्रवत
हर कोई है मन में आहत,
उदर-भरण की यह मजबूरी
बढ़ा रही अपनों से दूरी।
यहाँ मनुज अपने में जीता
याद न करता जीवन बीता,
आँखों में देते सपने भर
महानगर के ये छोटे घर।

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