कबीर के दोहे और उनके अर्थ
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कबीर के दोहे और उनके अर्थ :- कबीर दास जी ने मनुष्यों को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए दोहों की रचना की। कबीर दास जी के दोहे को पढ़कर इंसान में सकारात्मकता आती है। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित होता है। इसीलिए हमने अपने पाठको के लिए कबीर के दोहे और उनके अर्थ लेके आये है। कबीर दास जी के दोहे के संकलन का ये चौथा भाग है।
पहला भाग यहाँ से पढ़ सकते है- कबीर के दोहे भाग १
पढ़िए कबीर के दोहे और उनके अर्थ –
छिनहिं चढै छिन उतरै, सों तो प्रेम न होय।
अघट प्रेमपिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।।
अर्थ :- वह प्रेम जो क्षण भर में चढ़ जाता है और दुसरे क्षण उतर जाता है वह कदापि सच्चा प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि सच्चे प्रेम का रंग तो इतना पक्का होता है कि एक बार चढ़ गया तो उतरता ही नहीं अर्थात प्रेम वह है जिसमें तन मन रम जाये।
कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल।।
अर्थ :- संत कबीर जी कहते है की प्रभु का ध्यान सुमिरन , भजन, कीर्तन और आत्म चिन्तन ही परम सत्य है, बाकी सब झूठा है। आदि अन्त और मध्य के विषय में विचार करके सब देख लिया है। सुमिरन के अतिरिक्त बाकी सब काल के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि है, चारिपांव का होय।।
अर्थ :- कुल की मर्यादा के मोह में पड़कर जीव पतित हो गया अन्यथा यह तो हंस स्वरुप था, किन्तु उसे भूलकर अदोगति में पड़ गया। उस समय का तनिक ध्यान करो जब चार पैरों वाला पशु बनकर आना होगा। तब कुल की मान मर्यादा क्या होगी? अर्थात अभी समय है , शुभ कर्म करके अपनी मुक्ति क उपयोग करो।
सार शब्द जानै बिना, जिन पर लै में जाय।
काया माया थिर नहीं, शब्द लेहु अरथाय।।
अर्थ :- सार तत्व को जाने बिना यह जीव प्रलय रूपी मृत्यु चक्र में पड़कर अत्यधिक दुःख पाता है। मायारूपी धन संपत्ति और पंचत्तत्वों में मिल जायेगा और धन संपत्ति पर किसी अन्य का अधिकार हो जायेगा। अतः काया और माया का अर्थ जानकर उचित मार्ग अपनाये।
गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्फल गया, पूछौ वेद पुरान।।
अर्थ :– गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है।
साधु दर्शन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करि लेह।।
अर्थ :- साधु संतों का दर्शन महान फलदायी होता है, इससे करोड़ो यज्ञों के करने से प्राप्त होने वाले पूण्य फलों के बराबर फल प्राप्त होता है। सन्तो का दर्शन, उनके दर्शन के प्रभाव से एक मन्दिर नहीं, बल्कि पूरा नगर पवित्र और शुद्ध हो जाता है। सन्तों के ज्ञान रूपी अमृत से अज्ञानता का अन्धकार नष्ट हो जाता है।
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दोऊ चुकि खाली पड़े , ताको वार न पार।।
अर्थ :- साधु को वैरागी और संसारी माया से विरक्त होना चाहिए और गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही प्राणी को उदार चित्त होना चाहिए। यदि ये अपने अपने गुणों से चूक गये तो वे खाली रह जायेगे। उनका उद्धार नहीं होगा।
माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कुछ और।
कहैं कबीर जिन पहिरिया, पाँचो राखै ठौर।।
अर्थ :- माला पहनना और तिलक लगाना तो वेश धारण करना है, इसे वाह्य आडम्बर ही कहेंगे। राम भक्ति तो कुछ और ही है। राम नाम रूपी आन्तरिक माला धारण करता है, वह अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में करके राम माय हो जाता है।
यह तो घर है प्रेम का ऊँचा अधिक इकंत।
शीष काटी पग तर धरै, तब पैठे कोई सन्त।।
अर्थ :- यह प्रेम रूपी घर अधिक ऊँचा और एकांत में बना हुआ है। जो अपना सिर काटकर सद्गुरु के चरणों में अर्पित करने की सामर्थ्य रखता हो वही इसमें आकर बैठ सकता है अर्थात प्रेम के लिए उत्सर्ग की आवश्यकता होती है।
सबै रसायन हम पिया, प्रेम समान न कोय।
रंचन तन में संचरै, सब तन कंचन होय।।
अर्थ :- मैंने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा किन्तु प्रेम रसायन के समान कोइ नहीं मिला। प्रेम अमृत रसायन के अलौकिक स्वाद के सम्मुख सभी रसायनों का स्वाद फीका है। यह शरीर में थोड़ी मात्रा में भी प्रवेश कर जाये तो सम्पूर्ण शरीर शुद्ध सोने की तरह अद्भुत आभा से चमकने लगता है अर्थात शरीर शुद्ध हो जाता है।
करता था तो क्यों रहा, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय।।
अर्थ :- जब तू बुरे कार्यो को करता था, संतों के समझाने पर भी नहीं समझा तो अब क्यों पछता रहा है। जब तूने काँटों वाले बबूल का पेड़ बोया तो बबूल ही उत्पन्न होंगें आम कहां से खायगा। अर्थात जो प्राणी जैसा करता है, कर्म के अनुसार ही उसे फल मिलता है।
दुनिया के धोखें मुआ, चला कुटुम्ब की कानि।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि।।
अर्थ :- सम्पूर्ण संसार स्वार्थी है। स्वार्थ की धोखा धड़ी में ही जीव मरता रहा और संसारी माया के बंधनों में जकड़ा रहा। तुम्हारे कुल की लज्जा तब क्या रहेगी जब तुम्हारे शव को ले जाकर लोग शमशान में रख देंगे।
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान।
ऊंचा चढ़ा कर देखता, केतिक दूर विमान।।
अर्थ :- अज्ञानता में भटक रहे प्राणियों को सचेत करते हुए कबीरदास जी कहते है – ए अज्ञानियों। अहिरन की चोरी करके सुई का दान करता है । इतना बड़ा अपराध करने के बाद भी तू ऊँचाई पर चढ़कर देखता है कि मेरे लिए स्वर्ग से आता हुआ विमान अभी कितना दूर है। यह अज्ञानता नहीं तो और क्या है?
जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान।
नहिं तो औगुन उपजे, कहि सब संत सुजान।।
अर्थ :- जिन्होंने अपनी जिह्वा को वश में कर लिया , समझो सारे संसार को अपने वश में कर लिया क्योंकि जिसकी जिह्वा वश में नहीं है उसके अन्दर अनेकों अवगुण उत्पन्न होते है। ऐसा ज्ञानी जन और संतों का मत है।
काम काम सब कोय कहै, काम न चीन्है कोय।
जेती मन की कल्पना, काम कहावै सोय।।
अर्थ :- काम शब्द का मुख से उच्चारण करना बहुत ही आसान है परन्तु काम की वास्तविकता को लोग नहीं पहचानते। उसके गूढ़ अर्थ को समझने का प्रयास नहीं करते। मन में जितनी भी विषय रूपी कल्पना है वे सभी मिलकर काम ही कहलाती हैं।
कबीर औंधी खोपड़ी , कबहूं धापै नाहिं।
तीन लोक की संपदा कब आवै घर मांहि।।
अर्थ :- मनुष्य की यह उल्टी खोपड़ी कभी धन से तृप्त नहीं होती बल्कि जिसके पास जितना अधिक धन होता है उसकी प्यास उतनी ही बढती जाती है। लोभी व्यक्ति के मन में सदैव यही भावना होती है कि कब तीनों लोको की संपत्ति हमारे घर आयेगी।
साधु ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति पडै छाडै नहीं, चढै चौगुना रंग।।
अर्थ :- साधु ऐसा होना चाहिए जिसका मन पूर्ण रूप से संतुष्ट हो। उसके सामने कैसा भी विकट परिस्थिति क्यों न आये किन्तु वह तनिक भी विचलित न हो बल्कि उस पर सत्य संकल्प का रंग और चढ़े अर्थात संकल्प शक्ति घटने के बजाय बढे।
साधु आवत देखि कर, हंसी हमारी देह।
माथा का गहर उतरा, नैनन बढ़ा स्नेह।।
अर्थ :- साधु संतों को आता हुआ देखकर यदि हमारा मन प्रसन्नता से भार जाता है तो समझो हमारे सारे कुलक्षण दूर हो गये। साधु संतों की संगति बहुत बड़े भाग्यशाली को प्राप्त होती है।
कबीर हरिरस बरसिया, गिरि परवत सिखराय।
नीर निवानू ठाहरै, ना वह छापर डाय।।
अर्थ :- सन्त कबीर दस जी कहते है की चाहे वह परवत हो या ऊँचा नीचा धरातल अथवा समतल मैदान, बरसात हर स्थानों पर समान रूप से होती है किन्तु पानी हर स्थान पर नहीं ठहरता, गड्ढे या तालाबों में ही रुक सकता है उसी तरह सद्गुरु का ज्ञान प्रत्येक प्राणी के लिए होता है किन्तु सच्चे जिज्ञासु ही ग्रहण कर सकते है।
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी की नाल।।
अर्थ :- पुत्र के उत्पन्न होने पर लोग खुशियां मानते है ढोल बजवाते हैं । ऐसी ख़ुशी किस लिए। संसार में ऐसा आना जाना लगा ही रहता है जैसे चीटियों की कतार का आना जाना।
सहकामी दीपक दसा, सीखै तेल निवास।
कबीर हीरा सन्त जन, सहजै सदा प्रकाश।।
अर्थ :- विषय भोग में सदा लिप्त रहने वाले मनुष्यों की दशा जलते हुए उस दीपक के समान है जो अपने आधार रूप तेल को भी चूस लेता है जिससे वह जलता है। कबीर दास जी कहते है कि सन्त लोग उस हीरे के समान है जिनका प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता। वे अपने ज्ञान के प्रकाश से जिज्ञासु के ह्रदय को प्रकाशित करते है।
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान।।
अर्थ :- गुरु के चरणों में लेटकर दण्डवत और बार बार प्रणाम करो। गुरु की महिमा अपरम्पार है, जिस तरह कीड़ा भृंग को नहीं जानता किन्तु अपनी कुशलता से स्वयं को भृंग के समान बना लेता है उसी प्रकार गुरु भी अपने ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रभाव से शिष्य को अपने सामान बना लेते है।
सतगुरु मिले तो सब मिले, न तो मिला न कोय।
मात पिता सूत बांधवा, ये तो घर घर होय।।
अर्थ :- कबीर जी कहते है की सद्गुरु मिले तो जानो सब कोई मिल गये , कुछ मिलने को शेष नहीं रहा। माता-पिता , भाई-बहन , बंधू बांधव तो घर घर में होते है। सांसरिक रिश्तों से सभी परिपूर्ण हैं। सद्गुरु की प्राप्ती सभी को नहीं होती।
जो जागत सो सपन में, ज्यौं घट भीतर सांस।
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास।।
अर्थ :- जिस प्रकार जो सांसे जाग्रत अवस्था में हैं वही सांसें सोते समय स्वप्न अवस्था में घट के अन्दर आता जाता है उसी प्राकर जो जिसका प्रेमी है, वह सदा उसी के पास रहता है। किसी भी अवस्था में दूर नहीं होता।
जीवत कोय समुझै नहिं, मुवा न कह संदेस।
तन मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।।
अर्थ :- जीवित अवस्था में कोई ज्ञान का उपदेश और सत्य की बातें सुनता नहीं। मर जाने पर उन्हें कौन उपदेश देने जायेगा। जिसे अपने तन मन की सुधि ही नहीं है उसे उपदेश देने से क्या लाभ?
मांगन मरण समान है, तोहि दई में सीख।
कहै कबीर समुझाय के, मति मांगै कोई भीख।।
अर्थ :- कबीर जी कहते है कि दुसरों हाथ फैलाना मृत्यु के समान है। यह शिक्षा ग्रहण के लो। जीवन मी कभी किसी से भिक्षा मत मांगो। भिक्षा मांगना बहुत अभ्रम कार्य है। प्राणी दुसरों कि निगाह में गिरता ही है स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाता है।
जिन गुरु जैसा जानिया, तिनको तैसा लाभ।
ओसे प्यास न भागसी, जब लगि धसै न आस।।
अर्थ :- जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ। जैसे ओस के चाटने से सभी प्यास नहीं बुझ सकती उसी प्रकार पूर्ण सद्गुरु के बिना सत्य ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता।
कबीर संगी साधु का दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को मन बांधिया, या तन कीया घूर।।
अर्थ :- कबीर दस जी कहते हैं कि साधुओं का दल जिसें सद्गुण, सत्य, दया, क्षमा, विनय और ज्ञान वैराग्य कहते हैं, जब ह्रदय में उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करके शरीर का त्याग कर दिया। अर्थात वे यह भूल गये कि मै शरीर धारी हूं।
गाली ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
अर्थ :- गाली एक ऐसी है जिसका उच्चारण करने से कलह और क्लेश ही बढ़ता है। लड़ने मरने पर लोग उतारू हो जाते है। अतः इससे बचकर रहने में ही भलाई है। इससे हारकर जो चलता है वही ज्ञानवान हैं किन्तु जो गाली से लगाव रखता है वह अज्ञानी झगडे में फंसकर अत्यधिक दुःख पाता है।
कर्म फंद जग फांदिया, जबतब पूजा ध्यान।
जाहि शब्द ते मुक्ति होय, सो न परा पहिचान।।
अर्थ :- कर्म के फंदे में फसे हुए संसार लोक भोग विलास एवम् कामनाओं के वशी भूत होकर जब तब पूजा पाठ करना भूल गये है किन्तु जिस सत्य स्वरूप ज्ञान से मोक्ष प्राप्त हो है उसे पहचान कि नही सके।
कहा भरोसा देह, बिनसी जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो और जतन कछु नाहिं।।
अर्थ :- एस नश्वर शरीर का क्या भरोसा, क्षण मात्र में नष्ट हो सकता है अर्थात एक पल में क्या हो जाय, कोई भरोसा नहीं। यह विचार कर हर सांस मे सत्गुरू का सुमिरन करो। यही एकपात्र उपाय है।
बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय।
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखो तत्व लगाय।।
अर्थ :- मन रुपी मृग बिना सिर का है जो स्वच्छद रुपी से दूर दूर तक विचरण करता है। इस सद्गुरू के ज्ञान रुपी उपदेश की दोरी से बांधकर आत्म तत्व की साधन में लागाओ जो कि कल्याण का एक मात्र मार्ग है।
सांच कहूं तो मारि हैं, झुठै जग पतियाय।
यह जगकाली कूतरी, जो छेडै तो खाय।।
अर्थ :- संसार के प्राणियों के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि सत्य बोलने पर लोग मारने दौडते हैं और झुठ बोलने पर बडी आसानी से विश्वास कर लेते हैं। यह संसार काटने वाली काली कुतिया के समान है जो इसे छेडता है उसे हि काट लेती है।
दीन गरीबी दीन को, दुंदुर को अभिमान।
दुंदुर तो विष से भरा, दीन गरीबी जान।।
अर्थ :- सरल ह्रदय मनुष्य को दीनता, सरलता एवम् सादगी अत्यन्त प्रिय लगती है किन्तु उपद्रवी व्यक्ति अभिमान रुपी विष से भरा रहता है और विनम्र प्राणी अपनी सादगी को अति उत्तम समझता है।
गुरु सों प्रीती निबाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत।।
अर्थ :- जिस प्रकार भी सम्भव हो गुरु से प्रेम का निर्वाह करना चाहिए और निष्काम भाव से गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए। प्रेम बिना वे दूर ही हैं। यदि प्रेम है तो वे सदैव तुम्हारे निकट रहेगें।
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इक इस ब्राहमण्ड।।
अर्थ :- सम्पूर्ण संसार में सद्गुरू के समान कोई अन्य नहीं है। सातों व्दीप और नौ खण्डों में ढूंढनें पर भी गुरु के समान कोई नहीं मिलेगा। गुरु हि सर्वश्रेष्ठ है । इसे सत्य जानो।
कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग।
पुरी किनहूं न भोगिया, इसका यही यही बिजोग।।
अर्थ :- कबीर जो कहते हैं कि यह माया पापिनी है। इसने लोगों पर लोभ का परदा डालकर अपने वश में कर रखा है। इसे कोई भी पुरी तऱ्ह भोग नहीं पाया अर्थात जिसने जितना भी भोगा वह अधुरा ही रह गया और यही इसका वियोग है।
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान।।
अर्थ :- संत शिरोमणी काबीर जी मूर्ख और ज्ञानी के विषय में कहते हैं कि जब तक काम, क्रोध, मद एवम् लोभ आदि दुर्गुण मनुष्य के हृदय में भरा है तब तक मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) दोनों एक समान है। उपरोक्त दुर्गुणों को अपने हृदय से निकालकर जो भक्ति ज्ञान का अवलम्बन करता है वही सच्चा ज्ञानी है।
झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत।।
अर्थ :- यह छल कपट, मोह, विषय आदि सब झूठे हैं। यहाँ पर सभी स्वार्थीं है कोई अपना मित्र नहीं है। जिसने राम नाम रुपी अविनाशी परमात्मा को जान लिया वह भवसागर से पार होकर परमपद को प्राप्त होगा। यही परम सत्य है।
बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर।
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर।।
अर्थ :- वृक्ष अपने फल को स्वयं नही खाते, नदी अपना जल कभी नहीं पीती। ये सदैव दुसरो की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात् दुसरो का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है।
आंखों देखा घी भला, ना मुख मेला तेल।
साधु सों झगडा भला, ना साकट सों मेल।।
अर्थ :- आँखों से देखा हुआ घी दर्शन मात्र भी अच्छा होता है किन्तु तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं होता। ठीक इसी तऱह साधु जनों से झगडा कर लेना अच्छा है किन्तु बुद्धिहीन से मिलाप करना उचित नहीं है।
साधु बिरछ स्त ज्ञान फल, शीतल शब्द विचार।
जग में होते साधु नहीं, जर मरता संसार।।
अर्थ :- साधु जन सुख प्रदान करने वाले वृक्ष के समान है और उनके सत्यज्ञान को अमृतमयी फल समझकर ग्रहण करो। सधुओं के शीतल शब्द, मधुर विचार हैं। यदि इस संसार में साधु समझकर नहीं होते तो संसार अज्ञान की अग्नि में जल मरता।
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीनों तबही गये, जबहिं कहा कछु देह।।
अर्थ :- अपनी आन चली गई, यान सम्मान भी गया और आँखों से प्रेम की भावना चली गयी। ये तीनों तब चले गये जब कहा कि कुछ दे दो अर्थात आप जब कभी किसी से कुछ माँगोगे। अर्थात् भिक्षा माँगना अपनी दृष्टी से स्वयं को गिराना है अतः भिक्षा माँगने जैसा त्याज्य कार्य कदापि न करो।
कबीर संगत साधु कि, नित प्रिती कीजै जाय।
दुरमति दूर बहावासी, देसी सुमति बताय।।
अर्थ :- संत कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन लोगों की संगत में प्रतिदिन जाना चाहिए। उनके सत्संग से र्दुबुद्धि दूर हो जाता है और सद्ज्ञान प्राप्त होता है।
सुरति फंसी संसार में , ताते परिगो चूर।
सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर।।
अर्थ :- चंचल मन की वृत्ति संसार के विषय भोग रूपी मोह में फंसी हो तो सद्गुरु परमात्मा से दूरी हो जाती है। यदि संयम धारण करके मन को स्थिर कर आत्म स्वरुप में लगा दिया जाये तो वह आठों पहर उपस्थित रहेगा। मन को एकाग्र करके सद्गुरु के नाम का प्रतिक्षण सुमिरन करते रहना चाहिए। यही मोक्ष का उत्तम मार्ग है।
माला फेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय।।
अर्थ :- माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाठ को आप नहीं खोलेंगे। मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो। सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी।
चतुराई क्या कीजिए, जो नहिं शब्द समाय।
कोटिक गुन सूवा पढै, अन्त बिलाई जाय।।
अर्थ :- वह चतुराई हि किस अर्थ की जब सदगुरू के सदज्ञान के उपदेश ही हृदय में नहीं समाते। उस प्रवचन का क्या लाभ? जिस प्रकार करोड़ों की बात सीखता पढता है परन्तु अवसर मिलते ही बिल्ली उसी (तोते को) खा जाती है। ठीक उसी प्रकार सदगुरू हो ज्ञानंरुपी प्रवचन सुनकर भी अज्ञानी मनुष्य यूं ही तोते की भांति मर जाते हैं।
साधु आवत देखि के, मन में कर मरोर।
सो तो होसी चुहरा, बसै गांव की ओर।।
अर्थ :- साधु को आता हुआ देखकर जिस व्यक्ति के मन मरोड उठती है अर्थात साधु जन का आगमन भार स्वरूप प्रतीत (महसूस) होता है, वह अगले जन्म में चुडे चान्दाल का जन्म पायेगा और गांव के किनारे जाकर रहेगा। सन्तों से उसकी भेंट नहीं होगी।
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय।।
अर्थ :- ऊपरी आवरण धारण करके हर कोई योगी बन सकता है किन्तु मन की चंचलता को संयमित करके कोई योगी नहीं बनता। यदि मन को संयमित करके योगी बने तो सहजरूप में उसे समस्त सिद्धीयां प्राप्त हो जायेंगी।
मांग गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जांहि।
तिनतैं पहले वे मरे, होत करत है नाहिं।।
अर्थ :- जो किसी के घर कुछ मांगने गया, समझो वह मर गया और जो मांगने जायेगा किन्तु उनसे पहले वह मर गया जो होते हुए भी कहता है कि मेरे पास नहीं है।
कबीर कुल सोई भला, जा कुल उपजै दास।
जा कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास।।
अर्थ :- कबीर दास जो कहते हैं की उस कुल में उत्पन्न होना अति उतम है जिस कुल में गुरु भक्त और शिष्य उत्पन्न हुए हों किन्तु जिस कुल में भक्त उत्पन्न नहीं होता उस कुल में जन्म लेना मदार और पलास के पेड के समान निरर्थक है।
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय।
ओरन को शीतल करे, आपन को सुख होय।।
अर्थ :- ऐसी वाणी बोलिए जिसमें अहंकार का नाम न हो और आपकी वाणी सुनकर दुसरे लोग भी पुलकित हो जाँ तथा अपने मन को भी शान्ति प्राप्त हो।
जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय।
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय।।
अर्थ :- जंत्र मंत्र का आडम्बर सब झूठ है, इसके चक्कर में पडकर अपना जीवन व्यर्थ न गँवाये। गूढ ज्ञान के बिना कौवा कदापि हंस नहीं बन सकता। अर्थात दुर्गुण से परिपूर्ण आज्ञानी लोग कभी ज्ञानवान नहीं बन सकते।
साधु चलत से दीजिए, कीजै अति सनमान।
कहैं कबीर कछु भेट धरुं, अपने बित्त अनुमान।।
अर्थ :- साधु जन जब प्रस्थान करने लगे तो प्रेम विह्वल होकर आंखों से आंसू निकल आये। जिस तरह उनका सम्मान करो और सामर्थ्य के अनुसार धन आदि भेंट करो। साधु को अपने द्वार से खाली हाथ विदा नहीं करना चाहिए।
मास मास नहिं करि सकै , छठै मास अलबत्त।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत्त।।
अर्थ :- कबीर दास जी कहते है कि हर महीने साधु संतों का दर्शन करना चाहिए। यदि महीने दर्शन करना सम्भव नहीं है तो छठें महीने अव्श्य दर्शन करें इसमें तनिक भी ढील मत करो।
साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर।।
अर्थ :- अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है। साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं।
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट।
माथा बांधि पताक सों, नेजा घालै चोट।।
अर्थ :- संत शिरोमणि कबीरदास जी साधु, सती और शूरवीर के विषय बताते हैं कि ये तीनों परदे की ओट में नहीं रखे जा सकते। इनके मस्तक पर पुरुषार्थ की ध्वजा बंधी रहती है। कोई उन पर भाले से भी प्रहार करे फिर भी ये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते।
माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ।
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले चुनि का साथ।।
अर्थ :- माला पहन ली और मस्तक पर तिलक लगा लिया फिर भी भक्ति हाथ नहीं आई। दाढ़ी मुंडवा ली, मूंछ बनवा ली और दुनिया के साथ चल पड़े फिर भी कोई लाभ नहीं हुआ। तात्पर्य यह कि ऊपरी आडम्बर से भक्ति नहीं होती मात्र समाज को धोखा देना है और स्वयम अपने अप से छल करना है।
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहिं अंग।।
अर्थ :- जिस व्यक्ति का शरीर तो उजला है किन्तु मन मैला है अर्थात मन में पाप की गंदगी भरी हुई है वह बगुले के समान कपटी है उससे अच्छा तो कौवा ही है जिसका तन मन एक जैसा है। ऊपर से सज्जन दिखायी देने वाले और अन्दर से कपट स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों से सदा सावधान रहना चाहिए।
कबीर के दोहे और उनके अर्थ संग्रह के अन्य भाग जरूर पढ़ें –
4 comments
I need dohas related to trees and I searched and this came and when I opened it then ot was lol ????
we will try to provide dohas on tree soon….. till then be with us… Thanks
I can't 4 dohe i want to see there hindi ardh so plz add some more dohe
Sohail the dohe we have are with their meaning…..You can see there….If you want more dohe then specify the name of person whose dohe you want