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ढलती शाम पर कविता – लगी उतरने शाम | Dhalti Sham Par Kavita

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 ढलती शाम पर कविता – ‘ लगी उतरने शाम ‘ कविता में संध्याकालीन कुछ दृश्यों के बिम्ब उभारते हुए जीवन की विसंगतियों का चित्रण किया गया है। दिन ढलने के साथ ही पक्षी अपने घोंसलों में लौटने लगते हैं। मजदूर और किसान भी दिन भर मेहनत कर घर जाने की तैयारी करते हैं। शाम के समय जहाँ भिखारिन हाथ में कटोरा लिए भीख माँग रही है वहीं एक वृद्धा अपने बेटों से तीर्थयात्रा कराने की करुण पुकार कर रही है। कविता के अन्त में बताया गया है कि जीवन में भी ऐसे ही धीरे-धीरे शाम घिर आती है, लेकिन व्यक्ति की इच्छाएँ अधूरी ही रह जाती है।

ढलती शाम पर कविता

naye saal par prerna

बीत गई चटकीली दुपहर
चढ़ी धूप छत – छज्जों ऊपर.
भर अरुणाई सभी दिशा में
लगी उतरने शाम।

दूर गए जो पंछी के दल
देख रहे वे दिवस गया ढल,
लगे लौटने निज नीड़ों को
करने को विश्राम।

मजदूरी पर जाने वाले
जिनके पाँव पड़े हैं छाले,
चले घरों को अब थक हारे
पाकर थोड़े दाम।

खेतों से आते हैं हलधर
कर्मों के बीजों को बोकर,
फसल पके घर को आ जाए
तभी बने सब काम।

दूर भिखारिन लिए कटोरा
पढ़ किस्मत का कागज कोरा,
माँग रही है सूखी रोटी
कर में लाठी थाम।

बूढ़ी काकी भरती आहें
रही अधूरी उसकी चाहें,
कहती बेटों से करवादो
अब तो चारों धाम।

चल तू भी घर रे ! टूटे मन
खोज नहीं जग में अपनापन,
जीवन – संध्या में आशा पर
अब तो लगा लगाम।

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