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धरती — जो बिना किसी शिकायत के, सदियों से हमें जीवन दे रही है। वह मौन रहकर भी सबकुछ सहती है, और जब वक्त आता है, तो विद्रोहिणी बनकर अपना अस्तित्व याद दिलाती है। यह “पृथ्वी और नारी कविता” उसी अदम्य शक्ति, सहनशीलता और सृजनशीलता को समर्पित है जो धरती और नारी — दोनों में समान रूप से विद्यमान है।
पृथ्वी और नारी कविता

पता नहीं कब से
घूम रही है पृथ्वी
बिना किए कोई शोर
चुपचाप,
रात – दिन लगी हुई
अपने काम में
न सुख की हँसी
और न
दुःख का विलाप।
घूम रही है
कोल्हू के बैल – सी
किसी अनजान के
इशारों पर
अपने को भूली,
ऋतुओं का
आना – जाना भी
नहीं बदलता
उसकी जीवन – चर्या
बस
होकर रह जाता है
स्पन्दन मामूली।
करते हैं उस पर
कभी अपने
तो कभी पराये
बार-बार प्रहार,
कभी सह जाती वह
सब कुछ हो मौन
तो कभी
बनकर विद्रोहिणी
करती भी है प्रतिकार।
कई कई बार
उजड़ी – बसी
उठी – धँसी
पर मानी नहीं
किस्मत से
अपनी हार,
दबाकर सीने में
ज्वालामुखियाँ
देती रही
हरियाली का
औरों को उपहार।
कभी – कभी-कभी
लगता है मुझको
यह धरती भी नारी है,
जो जीवन के
संघर्षों में
अब तक
कभी नहीं हारी है।
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- महिला दिवस को समर्पित “नारी शक्ति पर दोहे”
- नारी शोषण पर कविता | कैसे धीरज धर लूं मैं | Nari Shoshan Par Kavita
धरती हो या नारी — दोनों ही जीवन का आधार हैं। वे सहती हैं, सृजन करती हैं, और फिर भी अपने अस्तित्व की पहचान में कभी नहीं डगमगातीं। यह कविता हमें याद दिलाती है कि मौन भी एक शक्ति है — और सृजन, सबसे बड़ा प्रतिकार।
