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मानव धर्म पर कविता :- मानवता अपना ना सके | Manav Dharm Par Kavita


आज के समय में मानव अपने जीवन का उद्देश्य भूल चुका है। वह अपने कर्तव्यों से पीछे हटता जा रहा है। आखिर किस जाल में फंस गया है आज का मानव। आइये जानते हैं इस ” मानव धर्म पर कविता ” के जरिये :-

मानव धर्म पर कविता

मानव धर्म पर कविता

मानव जन्म पाकर के
मानवता अपना ना सके।
देवों के दिये आशीष का
किंचित भी लाभ उठा ना सके।।
.
मनुष्य तो कहलाये लेकिन
मनुष्य धर्म से दूर रहे,
धर्मो की दुहाई दे दे कर
मानो नशे में चुर रहे,
लेकिन हम अपने जीवन में
धर्म ना धारण कर पाये,
धर्मो के पावन पथ पर
जीवन में तनिक ना चल पाये,
सत् कथनों व उपदेशों अनुरुप
आचरण अपना बना ना सके।
मानव जन्म पाकर के
मानवता अपना ना सके।

अनचाही जय-जयकार करी
पर धर्म ध्वनि पहचानी ना,
मान दिया अनैतिक जीवन को
समझा मुझसा कोई ज्ञानी ना,
धर्म आचरण लुप्त हो गया
धर्माडम्बर के घेरों में,
रह गया भटक कर धर्म तत्व
भ्रम , अज्ञान अधेंरों में,
पर उसका गरिमामय रुप हम
जगसम्मुख कभी ला ना सके।
मानव जन्म पाकर के
मानवता अपना ना सके।

बिना धर्म जीवन का सुख
मानो केवल मृगतृष्णा है,
बिना धर्म सुखी संसार की
कल्पना व्यर्थ का सपना है,
आओ अधर्म से मानव जीवन
को, मुक्ति मार्ग दिखाए हम,
मानव को देवों सा सक्षम कर
धरती को स्वर्ग बनाए हम,
धर्म साधना हो मन में ताकि
पशु-सा जीवन बिता ना सके।
मानव जन्म पाकर के
मानवता अपना ना सके।

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Praveen kucheriaमेरा नाम प्रवीण हैं। मैं हैदराबाद में रहता हूँ। मुझे बचपन से ही लिखने का शौक है ,मैं अपनी माँ की याद में अक्सर कुछ ना कुछ लिखता रहता हूँ ,मैं चाहूंगा कि मेरी रचनाएं सभी पाठकों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें।

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