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बचपन की यादें हमारे साथ सारी जिंदगी रहती हैं। यही वो पल होते हैं जो हमें हर अवस्था में अछे लगते हैं और फिर से उसी बचपन में लौट जाने का दिल करता है। ऐसी ही यादों में एक याद होती है माँ की लोरी की। जो मान हमे अक्सर रात को सुनाती है। हालाँकि मेरी माँ ने मुझे लोरी नहीं सुनाई उसकी भरपाई वो कहानियां सुना कर कर दिया करती थीं। फिर भी मैंने उस लोरी के अहसास को ‘ माँ की लोरी कविता ‘ के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। तो आइये पढ़ते हैं ‘ माँ की लोरी कविता ‘:-
माँ की लोरी कविता
तैयार ही रहता था मैं तो
जब रात ढलने को आती थी,
सैर मैं करता था जन्नत की
मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी।
सूरज, चाँद, तारों के देश में जाता था
मैं अक्सर नींद में मुस्कुराता था
जो कभी नहीं हो सकता था
मैं ऐसे ख्वाब सजाता था,
मिलती थीं वहाँ परियां जो
बड़े सुन्दर गीत वो गाती थीं
सैर मैं करता था जन्नत की
मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी।
किसी राजकुमार से मैं कम न था
उस उम्र में मुझे कोई गम न था
मुझको कोई डरा सके
इतना किसी में दम न था,
बस थकान होती थी खेलकूद की
उसकी गोद में वो उतर जाती थी
सैर मैं करता था जन्नत की
मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी।
बातों-बातों में सपनों की
दुनिया में मैं खो जाता था
सर रख माँ की गोद में मैं
चुपचाप यूँ ही सो जाता था,
प्यार से सिर पर मेरे
वो हाथों से सहलाती थी
सैर मैं करता था जन्नत की
मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी।
यूँ लगता है बीते ज़माने कई
न किस्से रहे न वो कहानियां रहीं
लापता सी हो गयी हैं अब
बचपन की वो नादानियाँ न रहीं,
इस भाग दौड़ में भूल गए हम
माँ बातें जो हमें बताती थी
सैर मैं करता था जन्नत की
मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी।
‘ माँ की लोरी कविता ‘ के बारे में अपने विचार हम तक अवश्य पहुंचाएं।
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धन्यवाद।
Image Source :- Akhand Gyan