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इंसानियत पर कविता – सब बिकाऊ है | Insaniyat Poem In Hindi

by Sandeep Kumar Singh
1 minutes read

इंसानियत पर कविता आप लोग पढ़ रहे है, जिसका शीर्षक है – सब बिकाऊ है।

इंसानियत पर कविता – सब बिकाऊ है

इंसानियत पर कविता - सब बिकाऊ है

खुला बाजार ये कैसा
यहाँ मजहब भी है बिकता,
कि बिकता है इंसान यहाँ
और हर रब भी है बिकता ।

न जाने कैसी दुनिया है
कि अब ईमान नहीं टिकता,
मुझे हिन्दू भी दिखता है
मुझे मुस्लिम भी दिखता है,
मगर अफ़सोस कि बन्दा
खुदा का अब नहीं दिखता।
कि बिकता है इंसान यहाँ
और हर रब भी है बिकता ।

है पैसों से नाम, शोहरत
कि है औकात पैसों से,
कि जिससे होती है
इज्जत बूढ़े बुजुर्गों की
शर्म आती है मुझको की
अब वो सलाम नहीं दिखता।
कि बिकता है इंसान यहाँ
और हर रब भी है बिकता ।

हो अपनापन यहाँ जिसमें
वो रिश्ता अब नहीं दिखता
दिखते हैं लुटेरे हर तरफ
इरादे नापाक हैं जिनके
बचाने सामने आये
फरिश्ता अब नहीं दीखता
कि बिकता है इंसान यहाँ
और हर रब भी है बिकता ।

खुला बाजार ये कैसा
यहाँ मजहब भी बिकता है,
कि बिकता है इंसान यहाँ
और हर रब भी है बिकता ।

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इंसानियत पर कविता आपको कैसी लगी और इस कविता में सामने रखी गयी बाते के बारे में आपका क्या विचार है। कृपया हमें कमेंट बॉक्स के माध्यम से जरुर बताएं।

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