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ख्वाब पर कविता – पढ़िए- हिंदी कविता – मैं सजदे रोज करता हूँ
ख्वाब पर कविता
कशमकश है ख्वाबों की
मुझे अब जागते सोते ,
मैं सजदे रोज करता हूँ
मगर पूरे नहीं होते।
इबादत करता रहता हूँ
सपनों के जहाँ में मैं,
समझ में ये नहीं आता
इनायत क्यों नहीं होती।
है परखा हर तरीके को
कि पूरे ख्वाब हो जाएँ,
हैरानी ये है कि ये सब
हकीकत क्यों नहीं होते।
मैं सजदे रोज करता हूँ
मगर पूरे नहीं होते।
आजादी मिल गई सबको
ये सबकी बदगुमानी है,
जो लूटा गोरों मुगलों ने
तो क्यों इतनी हैरानी है।
जिन्हें अपना समझा हमने
सब उनकी मेहरबानी है,
जो सिक्के चलने वाले भी
बना देते हैं अब खोटे।
मैं सजदे रोज करता हूँ
मगर पूरे नहीं होते।
वो है धर्म कैसा जो
आपस में लडा़ता है,
दिखा कर आईना झूठा
बुराई को जगाता है।
है तौबा ऐसे मजहब से
जो आपस में उलझ जाए,
परेशानी है शैताँ ये
इँसा क्यों नहीं होते।
मैं सजदे रोज करता हूँ
मगर पूरे नहीं होते।
है ख्वाहिश “अर्क” बस इतनी
करिश्मा इक जरा होता,
मुहब्बत के उसूलों से
रौशन ये जहाँ होता।
न कोई दुश्मनी होती
न कोई वैर ही होता,
न कोई गैर होता तब
सब अपने ही तो होते।
मैं सजदे रोज करता हूँ
मगर पूरे नहीं होते।
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