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दत्तात्रेय के २४ गुरु | अगहन मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय की जयन्ती होती है। अत्रि ऋषि और अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय समन्वयवादी संत थे। उनके साथ गाय और कुत्तों का होना उनके जीव प्रेम को दर्शाता है। उनके चौबीस गुरुओं का वर्णन करती कविता ‘ दत्तात्रेय के २४ गुरु ‘ :-
दत्तात्रेय के २४ गुरु
ब्रह्मा विष्णु और महेश के
एक रूप हैं दत्तात्रेय,
उनका जीवन और आचरण
सचमुच है हमको संज्ञेय।
था व्यवहार बड़ा ही निर्मल
जैसे तो हो उजला काँच,
काम क्रोध के दावानल की
पहुँच न पाई उनतक आँच।
कई क्षेत्र में रहे निपुण वे
सच्चे गुरु के सम विद्वान,
रहे अंश ईश्वर के फिर भी
छू न सका उनको अभिमान।
थे विनम्रता की मूरत वे
योगी वैज्ञानिक अवधूत,
ऋषि अत्रि और अनुसूया के
परम योग्य थे पावन पूत।
जिसका जो भी गुण लगता था
उनको अपनाने उपयुक्त,
ग्रहण किया उसको ही तत्क्षण
जीवन में हो कुंठा मुक्त।
पंचमहाभूतों जीवों की
देख क्रियाएँ भली प्रकार,
जीवन को सुन्दर करने हित
गुरु चौबीस किए स्वीकार।
पृथ्वी को देखा तो सोचा
धन्य बहुत इसका उपकार,
ऐसे ही हम आघातें सह
धैर्य न खोएँ किसी प्रकार।
सभी वस्तुओं को छूकर भी
निरासक्त रहती है वायु,
ऐसे ही निर्लिप्त भाव से
चलती रहे हमारी आयु।
कभी नहीं खंडों में बँटकर
रहता है विस्तृत आकाश,
हम फिर क्यों सीमाओं में घिर
आत्मतत्व का करें विनाश।
जल करता है शुध्द सभी को
शीतलता भी करे प्रदान,
हम भी सबको सुख पहुँचाकर
संतापों का करें निदान।
अशुभ कर्म को भस्म करे जो
शुभ का करती है विस्तार,
शिक्षा लें हम यही अग्नि से
चलकर काल चक्र अनुसार।
सूरज रहता सदा एक – सा
करते लोग भिन्न अनुमान,
ऐसे ही इक आत्मतत्व की
सभी जनों में हो पहचान।
घटती बढ़ती चन्द्र कलाएँ
परिवर्तन का दे आभास,
कहती समभावों से स्वीकृत
हो जीवन में उन्नति ह्रास।
मोह – जाल में फँसकर अपने
खो देता है प्राण कपोत,
अतिशय लिप्त रहे जो नर तो
ज्ञान बुद्धि की बुझती जोत।
उदर – भरण कर लेता अजगर
करके भी ना यत्न विशेष,
जीवन में संतोष अगर हो
नहीं शेष रहता है क्लेश।
काम सभी अपने कर लेता
साँप सरक करके चुपचाप,
बचें मदद लेने से हम भी
करें न दुःख का व्यर्थ प्रलाप।
मधुर सुरों से हो आकर्षित
हिरण बाण से होता बिद्ध,
ऐन्द्रिक विषय – भोग ऐसे ही
होते इक दिन छलना सिद्ध।
जब तक माँस चोंच में रहता
पक्षी कुरर न रहता शांत,
शांति सौख्य सचमुच मिलता है
अपरिग्रह के ही उपरांत।
काँटे में फँसकर के मछली
कर लेती जीवन बर्बाद,
लोलुपता संकट की जननी
रखें नियंत्रित जिह्वा – स्वाद।
लहरें उठती गिरती रहतीं
किन्तु न सागर खोता धीर,
सुख दुःख में हम रहें एक – से
हो चरित्र अपना गम्भीर।
तज देता है प्राण पतंगा
दीप – शिखा पर हो आकृष्ट,
विषय – भोग में पड़कर मानव
हो जाता है निश्चित नष्ट।
भिन्न भिन्न फूलों से भँवरा
सूँघा करता खूब पराग,
सार्थक तत्व ग्रहण करने में
रहे हमारा भी अनुराग।
घोर कृपणता से मधुमक्खी
भरती है मधु का भंडार,
पर अति संग्रह लुट ही जाता
नहीं सदा रहता अधिकार।
नहीं धैर्य पलभर को पाती
वैश्या रोज बेचकर देह,
इन्द्रिय का समुचित संयम ही
सुख का दायक निःसंदेह।
भृंगी अपने बिल में रखकर
कृमि को देती है निज रूप,
जीव ब्रह्म भी एक रूप हैं
नहीं पृथक ज्यों सूरज धूप।
कन्या के हाथों की चूड़ी
अधिसंख्या में करती शोर,
भीड़ हमें भटका लक्ष्यों से
लेती खींच पतन की ओर।
बाण बनाने वाला शरकृत
नहीं और पर देता ध्यान,
मन का निग्रह ही देता है
कर्म – साधना को पहचान।
क्षणिक सुखों की तृष्णा में पड़
होता हाथी बंधनग्रस्त,
अधिक वासना विष बनकर ही
कर देती जीवन को त्रस्त।
बालक कल की नहीं सोचता
सब चिन्ता से रहता मुक्त,
हम भी दुःख से छूट सकें जब
वर्तमान से हों संयुक्त।
निर्मित करके विचरण करती
मकड़ी निगले फिर निज लार,
ऐसे ही जग का होता है
सृजन सिंचन और संहार।
दत्तात्रेय सिखाते हमको
जीवन को करना गुणवान,
कहते अपने शुभ कर्मों से
मानव बन सकता भगवान।
वे कहते थे भवसागर में
भरे पड़े हैं कितने रत्न,
खोज खोज हम इनको लाएँ
सच्चे मन से करके यत्न।
दत्तात्रेय परम ज्ञानी थे
जान गए थे जीवन – सत्य,
उनका चारित्रिक दर्शन है
श्रेष्ठ आचरण का ही कथ्य।
आसक्ति और तृष्णाओं के
क्षणभंगुर विषयों को त्याग,
हम भी प्रेम करें सब ही से
निरासक्त रखकर अनुराग।
पढ़िए :- गुरु पर कविता ‘वही गुरु कहलाता है’
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धन्यवाद।
1 comment
नमस्कार , आपने दत्तात्रेय भगवान जी पर बहुत ही सुंदर कविता लिखी है .