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बुद्धि और भाग्य की कहानी :- आपदा को अवसर में बदलने की बात तो आप सबने सुनी ही होगी। लेकिन ये वाक्य सिर्फ उनके लिए है जो सबसे अलग सोच सकते हैं। बाकी सब तो बस भाग्य के सहारे बैठे रहते हैं। याद रखिये सामान्य बुद्धि बस सामान्य परिस्थितियों तक ही हमारा साथ देती है। जब परिस्थितियाँ असामान्य हो जाती हैं तो उनका निवारण सामान्य सोच के साथ नहीं किया जा सकता। उस समय हम तभी सफलता प्राप्त कर सकते हैं जब हम कोई नयी चीज खोज निकालें। याद रखिये बुद्धि सबके पास है लेकिन सफल वही है जो उन सब से आगे की सोच सकता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी हालत में ओना भाग्य बदल सकता है। कैसे? आइये जानते हैं इस मजेदार तेलुगू लोक कथा ” बुद्धि और भाग्य की कहानी ” के जरिये :-
बुद्धि और भाग्य की कहानी
चेन्नई जिसका नाम पहले मद्रास हुआ करता था, बहुत समय पहले वहां एक ब्राह्मण रहा करता था। आज के समय कुछ कहा नहीं जा सकता है लेकिन पहले कहा जाता था कि सरस्वती और लक्ष्मी जी की अपसा में नहीं बनती है। इसलिए वह सरस्वती का पुजारी ब्राह्मण निर्धन था।
वह प्राचीन परम्परा के अनुसार शिष्यों को पढ़ाता था। गुरुकुल की परंपरा के अनुसार शिष्य उसके लिए गाँव-गाँव जाकर भिक्षा मांगते। भिक्षा में जो भी मिलता था उसी से उनका गुजारा हो रहा था।
ब्राह्मण की पत्नी के बच्चा होने वाला था। ऐसे में ब्राह्मण की पत्नी को चिंता होने लगी कि उसकी संतान का पालन-पोषण इतनी गरीबी में कैसे होगा? इसी बात को लेकर वो अकसर ब्राह्मण को उसकी गरीबी के लिए ताने मारने लगी। वह कहती,
“न जाने मुझे किन कर्मों की सजा मिली है जो मेरा विवाह मेरे पिता ने एक कंगाल से कर दिया।”
ब्राह्मण को ये बात अच्छी न लगी। ताने सुन-सुन कर वह परेशान हो चुका था। फिर एक दिन उसने एक फैसला लिया और अपने सबसे प्रिय और सूझवान शिष्य को बुलाकर सारी जिम्मेदारी उसे दे दी। इसके बाद चार-पांच महीने में लौटने का आश्वासन देकर धन कमाने राजधानी चला गया।
ब्राह्मण के जाने के बाद वह शिष्य ने अपनी सारी जिम्मेदारियां ईमानदारी के साथ निभाने लगा। आस-पास के गाँव के लोगों को जब ब्राह्मण के जाने का पता चला तो सब लोगों ने मिलकर ब्राह्मण के यहाँ अनाज और जरूरत का बाकी सामान भिजवा दिया। आश्रम में बाकी शिष्यों को वह शिक्षा देने लगा। इस तरह सब कुछ सही रास्ते पर चलने लगा।
एक रात को ब्राह्मणी ने पुत्र को जन्म दिया। दरवाजे के पास खड़े शिष्य को जब यह पता चला तो उसने सोचा कि आगे क्या क्या करना है इस बारे में गाँव के बुजुर्गों से सलाह ले लेनी चाहिए। वह जाने ही वाला था कि इतनी देर में वहां एक दुबला-पतला ब्राह्मण लाठी के सहारे चलते हुए वहां आया। उसकी वेशभूषा देख कर शिष्य को लगा शायद वह कोई भिखारी है। शिष्य बोला,
“ओ बाबा, कौन हो तुम? आधी रात को यहाँ कैसे आना हुआ?”
“अभी ये मत पूछो कौन हूँ मैं, मुझे कुछ काम है। बस तुम मुझे अंदर जा लेने दो।”
उस दुबले-पतले ब्राह्मण ने जवाब दिया।
“ऐसे कैसे जा लेने दो? कम से कम अपना परिचय तो दीजिये। और भला आप इस स्थिति में एक असहाय स्त्री के पास कैसे जा सकते हैं आप?”
शिष्य दरवाजे पर रास्ता रोके हुए खड़ा था। ब्राह्मण ने हँसते हुए जवाब दिया,
“तो सुनो, मैं विधाता हूँ। सबका भाग्य लिखने वाला। आज यहाँ बच्चा पैदा हुआ है तो बस उसी का भाग्य लिखने चला आया। भाग्य लिखने वाले को कौन रोक सका है भला।”
इतना कहते हुए वह ब्राह्मण हँसते हुए शिष्य को हटा अंदर चला गया।
जब वह बाहर आया तो उस शिष्य ने उत्सुकतावश पूछा,
“महाराज, फिर क्या लिखा आपने मेरे गुरुभाई के भाग्य में?”
आज तक विधाता ने किसी को बताया है क्या कि उन्होंने ने किसके भाग्य में क्या लिखा है। परन्तु शिष्य भी उन्हें ऐसे नहीं जाने देने वाला था। पीछा न छोड़ते देख ब्राह्मण विवश होकर बोला,
“यही जानना चाहते हो न कि क्या लिखा है, तो मैंने य लिखा है कि ये लड़का हमेशा निर्धन ही रहेगा। इसके पास घर में एक गाय औए एक बोरा अनाज के अलावा कुछ भी नहीं रहेगा। कितना भी परिश्रम कर ले यह धन नहीं कमा पाएगा।”
इतना कहते ही वह ब्राह्मण वहां से चलता बना। शिष्य को उसके इस व्यवहार पर बहुत गुस्सा आया परन्तु वह ब्राह्मण अब जा चुका था इसलिए कुछ किया नहीं जा सकता था।
कुछ महीने बाद गुरुकुल का ब्राह्मण लौट आया। आकर जब उसने देखा की सब कुछ व्यवस्थ्ति ढंग से चल रहा है तो उस बड़ी प्रसन्नता हुयी। अपने साथ वह काफी धन कमा कर लाया था। अब उसे किसी बात की कोई चिंता न थी इसलिए उसका जीवन अब हंसी-ख़ुशी गुजरने लगा।
लेकिन यह ख़ुशी ज्यादा दिन तक न टिक सकी। सब धन ख़त्म हो गया और कमाई का और कोई साधन म होने से एक बार फिर गरीबी आ गयी। अब ब्राह्मण का परिवार दो साल पहले वाली हालत में आ गया था। इस बार फिर ब्राह्मणी को बच्चा होने वाला था।
ऐसे में जब ब्राह्मण ने शिष्य से अपनी स्थिति के बारे में विचार विमर्श किया तो शिष्य ने उसे फिर से राजधानी जाने की सलाह दी।
ब्राह्मण पहले की तरह अपनी सारी जिम्मेदारी अपने उसी बुद्धिमान शिष्य के कन्धों पर छोड़ राजधानी चला गया।
सब कुछ वैसे ही चलने लगा जैसे पहले चलता था। फिर से गाँव के लोग अनाज व जरूरी सामान दे गए। समय आने पर ब्राह्मणी की कोख से एक कन्या ने जन्म लिया। जब शिष्य को इस बात की खबर हुयी तो वह अपनी गुरु बहन को देखने लिए गया। लेकिन उसके पहुँचने से पहले ही वहां वही दुबला-पतला ब्राह्मण पहुँच गया था। जो खुद को विधाता बताता था।
उसे देख कर शिष्य को गुस्सा तो बहुत आया परन्तु वह कर भी क्या सकता था। जब वह ब्राह्मण बाहर निकले तो शिष्य ने पूछा,
“कहो महाराज, अब कौन सा चक्रव्यूह रच कर आये हो।”
“अरे भाई, गुस्सा क्यों होते हो? मैं तो यहाँ बस अपना काम करने आया था। सबका अपना काम है मेरा ये काम है। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?”
चेहरे पर व्यंगात्मक मुस्कान लिए हुए ब्राह्मण ने कहा।
“अच्छा महाराज, ठीक है मगर बताओ तो सही आखिर मेरी गुरु बहन के भाग्य में क्या लिखा आपने?”
“इस लड़की का विवाह नहीं होगा। हाँ लेकिन इसे देखने वाले बहुत आएँगे। फिर भी ये सारा जीवन कुंवारी ही रहेगी।”
इतना सुनते ही शिष्य को गुस्सा आ गया और उसने गुस्से में उस ब्राह्मण को वहां से भाग जाने के लिए कहा।
ब्राह्मण पहले की ही भांति मुस्कुरा कर चला गया। लेकिन उस शिष्य के मन को अशांति दे गया। वह सोच में पड़ गया कि अगर ये सच में विधाता था तो उसके गुरु भाई और गुरु बहन का भविष्य क्या होगा? कैसे कटेगा उनका जीवन?
खैर, धीरे-धीरे समय बीतने लगा। एक साल, दो साल, तीन साल, करते-करते कई साल बीत गए। शिष्य का गुरु यानि कि ब्राह्मण वापस नहीं आया। राजधानी से जितने व्यक्ति आते उतनी बातें बताते। कोई कहता ब्राह्मण की मृत्यु हो गयी है। कोई कहता वह अपनी पत्नी से परेशान थे इसलिए सन्यास लेकर जंगलों में चले गए हैं।
शिष्य ही ब्राह्मण के घर और गुरुकुल की सारी जिम्मेदारी संभाल रहा था। सबके साथ-साथ उसने अपने गुरुभाई और गुरु बहन को भी शिक्षा देकर उन्हें शिक्षित किया। 18 साल बीत चुके थे। ब्राह्मणी का पुत्र 20 वर्ष का हो गया था। शिष्य को लगने लगा की अब उसका गुरुभाई गुरुकुल की वयवस्था सँभालने लायक हो गया है। इसी विचार से अब शिष्य अपनी सारी जिम्मेदारी उसे देकर वहां से विदा लेना चाहता था। ब्राह्मणी व उसके पुत्र और पुत्री ने उस शिष्य को रोकने का बहुत प्रयास किया मगर सब व्यर्थ था।
शिष्य जब जा रहा था तब गुरुभाई उसे छोड़ने कुछ दूर तक उसके साथ गया। जब गुरुभाई आशीर्वाद लेकर वापस लौटने को हुआ तब उस शिष्य ने उस से कहा,
“भाई, मैं जा रहा हूँ। मगर जो मैं अभी तुम्हें जो दो बातें बताऊंगा उस बात का ध्यान रखना। पहला कभी भी अपने घर पर अनाज से भरा हुआ बोरा और दूध देने वाली गाय मत रखना। अगर तुमने दोनों रखे तो तुम सारा जीवन निर्धन हो रहोगे। दूसरा जब भी कोई व्यक्ति तुम्हारी बहन के विवाह के संबंध में बात करने आये तो उन्हें सौ सोने की मोहरें लेकर आने को बोलना। और जब वो सौ मोहरें तुम्हें दे दे तभी अपनी बहन उन्हें दिखाना।”
लड़के ने वैसा ही करने का वायदा उस शिष्य से किया और वापस आश्रम लौट आया।
अगले ही दिन गाँव के एक पुरोहित के यहाँ से एक दुधारू गाय और एक बोरा अनाज उस लड़के के घर भिजवा दिया। लड़के ने उसी समय गाय और अनाज का बोरा बेच दिया। उसके अगले दिन फिर किसी ने एक बोरा अनाज और एक दुधारू गाय भेजी। लड़के ने फिर वैसा ही किया। अब आये दिन ही गायें और अनाज के बोरे आने लगे। लड़का उन्हें अपने वायदे अनुसार बेचता गया। इस से उसका भाग्य बदल गया और जल्दी ही वह अमीर हो गया।
थोड़े ही दिनों में उसकी बहन के विवाह की उम्र भी हो गयी थी। विवाह के लिए कई लोग लड़के को संपर्क करने लगे। उस लड़के को अपना वायदा याद था। उसकी बहन को जो भी देखने आता वह उस से सौ स्वर्ण मुद्राएं ले लेता। इस तरह वह और भी धनी हो गया। उनका जीवन सुखमय हो गया।
इसी तरह कई साल बीत गए। एक दिन उस शिष्य का मन हुआ कि क्यों न अपने गुरु के परिवार को देख आये। देख लिया जाए कि उनका भाग्य कैसा चल रहा है। इसी विचार के साथ वह वहां चल दिया। अभी वह गाँव के बहार ही पहुंचा था कि उसे वही दुबला पतला ब्राह्मण एक गाय, एक बोरा अनाज और पोटली में मुद्राएं ले जाते हुए दिखा। शिष्य ने आवाज लगाते हुए कहा,
“अरे महाराज, कहाँ जा रहे हैं?”
ब्राह्मण ने उसकी और देखा और गुस्से में ऊंची आवाज में बड़बड़ाना शुरू कर दिया,
“आ गए जले पर नमक छिड़कने। देख लो ये सब तुम्हारा ही किया धरा है। रोज एक दूध देने वाली गाय, एक बोरा अनाज और सौ मुद्राएं देते-देते मेरी ऐसी की तैसी हो रही है। दिमाग काम नहीं करता कि तुम्हारे इस चक्रव्यूह से कैसे निकलूं।”
“ मेरा चक्रव्यूह? महाराज आप भूल रहे हैं कि भाग्य तो आप लिखते हैं। फिर भला मैं कैसे आपको किसी भी चक्रव्यूह में फंसा सकता हूँ।”
शिष्य ने चुटकी लेते हुए कहा।
“बेटा मैं तेरी बुद्धि से हार चुका हूँ। मेरी सहायता कर और मुझे इस झंझट से निकाल।“
“झंझट से निकलना है तो ये उन दोनों की भाग्य की रेखाएं मिटा दीजिए। आप तो जानते ही हैं ये कलयुग है। आज का इंसान स्वयं अपनी बुद्धि से अपना भाग्य बनाता है। उदाहरण आप देख ही रहे हैं।”
“ऐसे कैसे मिटा दूँ मैं भाग्य की रेखाएं?”
“तो फिर उठाइये झंझट मैं कुछ नहीं कर सकता।”
“अरे नहीं बेटा, मेरा कुछ ख्याल करो। कब तक इसी काम में फंसा रहूँगा मैं।”
“मैं भी मजबूर हूँ महाराज। अपने गुरु को वचन दिया है कि उनके परिवार का ख्याल रखूँगा। अब ऐसे में उनका साथ कैसे छोड़ दूँ। वैसे भी इस दुनिया में कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। और फिर मुझे तो अपनी बहन का विवाह भी करना है। अगर आप मेरी बात मान लें तो आपको अपनी समस्या का हल मिल जाएगा।”
कुछ देर सोच-विचार करने के बाद उस ब्राह्मण ने गाय, अनाज का बोरा और मुद्राओं की पोटली उस शिष्य को दे दी और बोले,
“जाओ मिटा दी उनकी भाग्य की रेखाएं। तुम्हें उनका जैसा भी भविष्य बनाना है बना लो। मैं कोई रुकावट नहीं डालूँगा। लेकिन हाँ, मेरी एक विनती है कि इस बारे में तुम किसी को बताना नहीं। नहीं तो कोई भी मेरा आदर नहीं करेगा। किसी को मेरा भय नहीं रहेगा जिसके कारण कोई मुझे याद नहीं करेगा।”
इतना कहते हुए वह ब्राह्मण चला गया जो खुद को विधाता बता रहा था।
तो दोस्तों इस से ये तो सिद्ध हो गया कि आप ही हो जो अपनी बुद्धि से अपना भाग्य बदल सकते हो। यदि आप अपने लक्ष्य के लिए पूरी तरह से समर्पित हैं तो ऐसी कोई चीज नहीं जो आप हासिल नहीं कर सकते। हो सकता है हमारी परेशानियों में ही हमारी सफलता कहीं छुपी हो।
ये तो हमारी मानसिकता पर निर्भर करता है कि हमारा जीवन कैसा होने वाला है।
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धन्यवाद।
ye kahani mujhe bahut kuchh sikhala ke gayi
धन्यवाद अजय जी।