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बाल श्रम पर कविता ‘ककड़ी तोड़ती लड़कियाँ’ कविता, बालश्रम से सम्बन्धित है जिसमें छोटी-छोटी लड़कियाँ कुछ पैसों के लिए कड़ी धूप में खेतों में ककड़ियाँ तोड़ने का काम कर रही हैं। इन लड़कियों की पढ़ाई छूट गई है, अतः इनका जीवन अंधकारमय है। विवाह के बाद भी इन्हें मेहनत – मजदूरी कर जीवन यापन करना पड़ेगा, जिसके कारण इनका जीवन कष्टों और अभावों में ही व्यतीत होगा। इस प्रकार अपरोक्ष रूप में इस कविता में बाल श्रम का विरोध करते हुए बालिका – शिक्षा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है जिससे कि बालिकाएँ अपने भविष्य का निर्माण स्वयं कर सकें।
बाल श्रम पर कविता
दूर खेत में कड़ी धूप में,
रूखे सूखे रंग रूप में,
सुनती सबकी बातें खोटी,
नौंच रहा ज्यों कोई बोटी,
काम कर रहीं शीश झुकाए
छोटी-छोटी कई लड़कियाँ ।
छूटी इनकी कहीं पढ़ाई,
घर वालों से हैं धकियाई,
करने को मजदूरी आई,
मायूसी चेहरों पर छाई,
तोड़ रही हैं दो रुपये में
घंटों – घंटों ढेर ककड़ियाँ।
इनका जीवन भी क्या जीवन,
फटे वस्त्र की जैसे सीवन,
सूखे टुकड़े खाकर पलती,
घर – भर की आँखों में खलती,
कभी-कभी रोटी के बदले
खाती हैं ये बहुत झिड़कियाँ।
जब होंगी ये तनिक सयानी,
लाएँगी कुएँ से पानी,
कभी-कभी जंगल जाएँगी,
काट घास गट्ठर लाएगी,
बेच इसे ये ले आएँगी
नमक तेल के साथ लकड़ियाँ।
कल को ये ससुराल जाएँगी,
किन्तु नहीं आराम पाएँगी,
कट जाएँगी इनकी पाँखें,
बरसेंगी सावन – सी आँखें,
चूल्हा – चौका मार-पिटाई,
मजदूरी की छिनी कमाई,
देख इन्हें लगता जालों में
उलझ रही हैं कई मकड़ियाँ।
इनका जीवन ऐसे ही बस
बीत जाएगा रोते – धोते,
अपने टूट गए सपनों को
बच्चों की आँखों में बोते,
इनके अँधियारे जीवन में
नहीं खुलेंगी मरते दम तक,
कभी सुखों की बन्द खिड़कियाँ।
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धन्यवाद।