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बच्चे जिद्दी क्यों हो जाते हैं | जिद्दी बच्चे को सुधारने का उपाय

by Apratim Blog
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बच्चे जिद्दी क्यों हो जाते हैं – अक्सर कई माँ-बाप की शिकायत रहती है कि हमारा बच्चा बहुत जिद्दी है और हमारा कहना नहीं मानता। लेकिन ये हालात पैदा कैसे होते हैं और कैसे इस समस्या का हल हो सकता है, इसी विषय पर आधारित है यह लेख ” बच्चे जिद्दी क्यों हो जाते हैं “

बच्चे जिद्दी क्यों हो जाते हैं

बच्चे जिद्दी क्यों हो जाते हैं

जिन्हें बार-बार दवा खाने की आदत पड़ चुकी होती है उन पर दवा बहुत कम असर करती है या बहुत न के बराबर असर करती है। डॉक्टर को रोजाना दवा की खुराक बढ़ानी ही पड़ती है। ऐसे रोगियों को डॉक्टर ‘क्रोनिक पेशेण्ट्स’ कहते हैं। डॉक्टर दवा देते रहते हैं, रोगी दवा लेते रहते हैं। रोग बढ़ता जाता है और जीवन घटता जाता है !

इसका कारण क्या है ? मूल कारण है, आदमी का बीमार पड़ना। अगर आदमी ने अपने स्वास्थ्य को ही सहेजा होता तो उसे दवा लेनी ही नहीं पड़ती। दूसरा कारण यह है कि डॉक्टर ने उसे निरोग रहने का मार्ग दिखाने के बजाय मात्र रोग मिटाने का ही प्रयत्न किया। तीसरा कारण यह है कि ज्यों-ज्यों रोग नहीं मिटा, त्यों-त्यों अधिक से अधिक तेज खुराकें दी गईं। अब डॉक्टर और शरीर शास्त्री मानने लगे हैं कि दवा के उत्तेजकों और मन्द परिणामों से मुक्ति देने के बजाय आरोग्य सदनों का निर्माण किया जाना चाहिए; अब आरोग्य-शास्त्रियों को डॉक्टरों का स्थान ले लेना चाहिए; दवा के लिए दौड़ने वाले रोगी को दवा की बजाय पहले ही शुद्ध हवा का सेवन कराया जाना चाहिए। –

इस विचारधारा को मस्तिष्क में रखते हुए बाल-शिक्षण में टोका-टोकी के स्थान पर चिन्तन करना चाहिए। माता-पिताओं द्वारा हमसे बारम्बार पूछा जाता है : ‘श्रीमान ! इन बच्चों का हम क्या करें? कहते-कहते थक जाते हैं, पर ये सुनते ही नहीं। एक बार का कहा तो कान में डालते ही नहीं! पाँच-पचास बार कहते हैं, तब कहीं जाकर ध्यान देते हैं। इनका क्या करें? जितना ज्यादा कहते हैं उतनी ही ज्यादा उपेक्षा करते हैं। है इसका कोई इलाज ?’

हम ऊपर देख चुके हैं कि दवाएँ जितनी अधिक ली जाती हैं, उतनी ही अधिक उनको लेने की जरूरत पड़ती है और तभी उनका कुछ असर दिखाई देता है । टोकाटोकी के सम्बन्ध में भी यही स्थिति है। जितना ज्यादा टोकते जाते हैं, टोका-टोकी की मात्रा उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती है। जैसे दवा लम्बे समय तक काम नहीं करती, रास आ जाती है, वैसे ही लम्बे समय तक टोका-टोकी के बोल असर नहीं करते, सुनने वाला ढीठ हो जाता है। उसे लगता है कि ‘ये तो कहते ही रहते हैं। रोजाना की बात है। दिन भर यही चलता है। इनकी तो कहते रहने की आदत पड़ गई। हम तो जो करते हैं, वही हमें करते रहना है।’ टोकने से बालक में ऐसी मनोवृत्ति पैदा हो जाती है।

मूल दोष वहाँ है कि बालक के साथ बर्ताव कैसे किया जाए? मोटे तौर पर तो बालक हमारी कही बात को सुनने और वैसा व्यवहार करने को तैयार रहता है। उसकी स्वाभाविक मनोवृत्ति स्वस्थ होती है। वह मनाही किये बिना काम करने को दौड़ता है; काम करने नहीं देने पर वह रोता है। लेकिन हम ही उसकी इस निरोगी और स्वाभाविक वृत्ति को अस्वस्थ और मन्द या विकृत कर डालते हैं। जब हम बालक में विद्यमान काम करने की, कहा करने की, हमारी बात सुनने की वृत्ति को रोक देते हैं, बस तभी से टोकने का धन्धा शुरू हो जाता है।

एक बार बालक के सहज स्वाभाविक उत्साह को रोका नहीं, कि उसका मन बैठ जाता है; उसे आघात लग जाता है; उसकी दिशा बदल जाती है; कान बन्द हो जाते हैं; उसके अन्तर में हमारी आवाज जानी रुक जाती है । वस्तुतः हम ही तो उसके कान बन्द करते हैं और हम ही यह शिकायत करते हैं कि बालक सुनवाई नहीं करता । हम उसका इलाज ढूँढ़ने निकल पड़ते हैं। हमने ही उसे रोगी बनाया और दवा देने की शुरुआत की ।

परन्तु सवाल यह है कि रोग लग गया, उसका क्या किया जाए? जैसे-जैसे टोका-टोकी की खुराक बढ़ाते जाते हैं, वैसे-वैसे बालक ज्यादा से ज्यादा ढीठ बनता जाता है। हमारी बात न सुनने और न मानने का मानसिक रोग इसी कारण से उसके मन में जड़ें जमा लेता है। बेशक, हर बढ़ी हुई खुराक के साथ बालक कुछ समय तक हमारी बात सुनेगा, हमारा कहा मानेगा, लेकिन जिस तरह अन्य उत्तेजक दवाओं के कारण अन्त में शरीर शिथिल होने लगता है, उसी तरह गालियों आदि से या टोका-टोकी से उत्तेजित हुआ बालक का मन फिर शिथिल हो जाता है और अधिक शिथिल या मन्द होने पर वह अधिक टोका-टोकी की उपेक्षा रखने लगता है। आखिरकार ऐसा समय भी आता है कि बालक हमारे हाथ से बिल्कुल निकल जाता है। उस पर किन्हीं शब्दों का असर नहीं होता । ठीक वैसे ही जैसे अन्त में कोई भी दवा रोगी के पेट में टिक नहीं पाती।

हमें टोका-टोकी के उत्तेजकों से बालक को दूर रखना चाहिए। हम उसे दवा के स्थान पर हवा का सेवन करायें। जब वह सहज स्वाभाविक रूप से हमारा कहा करने और सुनने को तैयार हो, तब हम उसकी वैसा करने की इच्छा और शक्ति को बढ़ायें; और जब उसकी वैसा करने की मर्जी न हो, तब उसे छोड़ ही दें।

जैसा कि हम सब जानते हैं कि बच्चे अपने आस-पास के वातावरण से भी बहुत कुछ सीखते हैं। इसलिए हम जब भी उनके सामने या उनके साथ कोई व्यवहार करें तो वैसा ही करें जैसा की हम बालक से करने की अपेक्षा रखते हैं। आशा करते हैं कि इस लेख में आपको अपनी समस्या का हल मिल गया होगा।

बच्चों से जुड़ी ऐसी ही समस्याओं को कैसे हम आसानी से सुलझा सकते हैं इसी विषय पर आधारित है गिजुभाई की यह पुस्तक जिसे आप नीचे दिए गए लिंक से खरीद सकते हैं।

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धन्यवाद।

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